04 मार्च 2017

अक्षर खण्ड रमैनी 2


प्रथमे एक शब्द आरूढ़, तेहि तकि कर्म करे बहु मूढ़ ।
ब्रह्म भरम होय सब में पैठा, निरमल होय फ़िरे बहु ऐंठा ।
भरम सनातन गावे पांच, अटकि रहै नर भव की खांच ।
आगे पीछे दहिने बांयें, भरम रहा है चहुदिशि छाये ।
उठी भर्म नर फ़िरै उदास, घर को त्यागि कियो वनवास ।
भरम बढ़ी सिर केश बढ़ावे, तके गगन कोई बांह उठावे ।
द्वै तारी कर नासा गहै, भरमि क गुरु बतावे लहै ।
भरम बढ़ी अरु घूमन लागे, बिनु गुरु पारख कहु को जागे ।
कहैं कबीर पुकार के, गहहु शरण तजि मान ।
परखावे गुरु भरम को, वानि खानि सहिदानि ।11
भरम जीव परमातम माया, भरम देह औ भरम निकाया ।
अनहद नाद औ ज्योति प्रकास, आदि अन्त लौ भरम हि भास ।
इत उत करे भरम निरमान, भरम मान औ भरम अमान ।
कोहं जगत कहाँ से भया, ई सब भरम अती निरमया ।
प्रलय चारि भ्रम पुण्य औ पाप, मन्त्र जाप पूजा भ्रम थाप ।
बाट बाट सब भरम है, माया रची बनाय ।
(बाप पूत दोऊ भरम है, माया रची बनाय)
भेद बिना भरमे सकल, गुरु बिन कहाँ लखाय । 12
बाप पूत दोऊ भरम, आध कोश नव पांच ।
बिन गुरु भरम न छूटे, कैसे आवे सांच ।13
कलमा बांग निमाज गुजारै, भरम भई अल्लाह पुकारे ।
अजब भरम यक भई तमासा, ला मुकाम बेचून निवासा ।
बेनमून वह सबके पारा, आखिर ताको करौ दीदारा ।
रगरै महजिद नाक अचेत, निंदे बुत परस्त तेहि हेत ।
बाबन तीस बरन निरमाना, हिन्दू तुरक दोऊ भरमाना ।
भरमि रहे सब भरम महँ, हिन्दू तुरक बखान । 
कहहिं ‘कबीर’ पुकार कै, बिनु गुरु को पहिचान ।14



भरमत भरमत सबै भरमाने, रामसनेही बिरला जाने ।
तिरदेवा सब खोजत हारे, सुर नर मुनि नहि पावत पारे ।
थकित भया तब कहा बेअन्ता, विरहनि नारि रही बिनु कन्ता ।
कोटिन तरक करें मन माही, दिल की दुविधा कतहुं न जाही ।
कोई नख शिख जटा बढ़ावैं, भरमि भरमि सब जहँ तहँ धावैं ।
बाट न सूझै भई अंधेरी, होय रही बानी की चेरी ।
नाना पन्थ बरनि नहि जाई, जाति वरण कुल नाम बङाई ।
(जाति कर्म गुन नाम बङाई)
रैन दिवस वे ठाढ़े रहही, वृक्ष पहार काहि नहीं तरहीं ।
खसम न चीन्हे बाबरी, पर पुरुष लौलीन ।
कहंहिं कबीर पुकार के, परी न बानी चीन ।15
कन रस की मतवाली नारि, कुटनी से खोजे लगवारि ।
कुटनी आँखिन काजर दियऊ, लागि बतावन ऊपर पियऊ ।
काजर ले के ह्वै गयी अन्धी, समुझ न परी बात की संधी ।
बाजे कुटनी मारे भटकी, ई सब छिनरो ता महं अटकी ।
विरहिन होय के देह सुखावै, कोई शिर महं केश बढ़ावै ।
मानि मानि सब कीन्ह सिंगारा, बिन पिय परसै सब अंगारा ।
अटकी नारि छिनारि सब, हरदम कुटनी द्वार ।
खसम न चीन्है बाबरी, घर घर फ़िरत खुवार ।16
नव दरवाजा भरम विलास, भरमहि बाबन बहे बतास ।
कनउज बाबन भूत समान, कहं लगि गनो सो प्रथम उङान ।
माया ब्रह्म जीव अनुमान, मानत ही मालिक बौरान ।
अकबक भूत बके परचंड, व्यापि रहा सकलो ब्रह्मंड ।
ई भर्म भूत की अकथ कहानी, गोत्यो जीव जहाँ नहि पानी ।
तनक तनक पर दौरै बौरा, जहाँ जाये तहाँ पावे न ठौरा ।
योगी राम भक्त बाबरा, ज्ञानी फ़िरे निखट्टू ।
संसारी को चैन नही है, ज्यों सराय को टट्टू ।17
इत उत दौरै सब संसार, छुटे न भरम किया उपचार ।
जरै जीव को बहुरि जरावै, काटे ऊपर लोन लगावै ।
योगी ऐसे हाल बनाई, उल्टी बत्ती नाक चलाई ।
कोई विभूति मृगछाला डारे, अगम पन्थ की राह निहारे ।
काहू को जलमांझ सुतावै, कहंरत हीं सब रैन गवांवै ।
भगती नारी कीन श्रंगार, बिन प्रिया परचै सबै अंगार ।
एक गर्भ ज्ञान अनुमान, नारि पुरुष का भेद न जान ।
संसारी कहूँ कल नहि पावै, कहरत जग में जीव गंवावै ।
चारि दिशा में मन्त्री झारे, लिये पलीता मुलना हारे ।
जरै न भूत बङो बरियारा, काजी पण्डित पढ़ि पढ़ि हारा । (पढ़ि पढ़ि और पचि पचि)
इन दोनों पर एकै भूत, झारेंगे क्या मां की चूत ।
भूत न उतरे भूत सों, सन्तों करो विचार ।
कहैं कबीर पुकार के, बिनु गुरु नहि निस्तार ।18
परम प्रकाश भास जो, होत प्रोढ़ विशेष ।
तद प्रकाश संभव भई, महाकाश सो शेष ।19
झांई संभव बुद्धि ले, करी कल्पना अनेक ।
सो परकाशक जानिये, ईश्वर साक्षी एक ।20 मुक्तमंडल आगरा
विषम भई संकल्प जब, तदाकार सो रूप ।
महा अंधेरी काल सो, परे अविद्या कूप ।21
महा तत्व त्रीगुण पाँच तत्व, समिष्ठि व्यष्ठि परमान ।
दोय प्रकार होय प्रगटे, खंड अखंड सो जान ।22

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