04 मार्च 2017

अक्षर खण्ड रमैनी 1


प्रथम शब्द है शून्याकार, परा अव्यक्त सो कहै विचार ।
अंतःकरण उदय जब होय, पश्यन्ति अर्धमात्रा सोय ।
स्वर सो कंठ मध्यमा जान, चौंतिस अक्षर मुख स्थान ।
अनवनि बानी तेहि के माहि, बिन जाने नर भटका खाहिं ।
बानी अक्षर स्वर समुदाय, अर्ध पश्यन्ति जात नसाय ।
शुन्याकार सो प्रथमा रहै, अक्षर ब्रह्म सनातन कहै ।
निवृति प्रवृति है शब्दाकार, प्रणव जाने इहे विचार ।
अंकुलाहट के शब्द जो, भई चार सो भेष ।
बहुबानी बहुरूप के, प्रथक प्रथक सब देश ।1 
अनवनि बानी चार प्रकार, काल संधि झांई औ सार ।
हेतु शब्द बूझिये जोय, जानिय यथारथ द्वारा सोय ।
भ्रमिक झांई संधिक औ काल, सार शब्द काटे भ्रम जाल ।
द्वारा चार अर्थ परमान, पदारथ व्यंगाथ पहिचान ।
भावार्थ ध्वन्यार्थ चार, द्वारा शब्द कोई लखे विचार ।
परा पराइति मुख सो जान, मोरे सोरह कला निदान ।
बिन जानै सोरह कला, शब्द ही शब्द कौ आय ।
शब्द सुधार पहिचानिये, कौन कहा वौ आय ।2 
अक्षर वेद पुराण बखान, धरम करम तीरथ अनुमान ।
अक्षर पूजा सेवा जाप, और महातम जेते थाप ।
यही कहावत अक्षर काल, जाए गडी उर होय के भाल ।
ओंऽहं सोंऽहं आतमराम, माया मन्त्रादिक सब काम ।
ये सब अक्षर संधि कहै, जेहिमा निसवासर जिव रहै ।
निर्गुण अलख अकह निर्वाण, मन बुद्धि इन्द्री जाय न जान ।
विधि निषेध जहँ बनिता दोय, कहैं कबीर पद झांईं सोय ।
प्रथमे झांईं झांकते, पैठा संधिक काल ।
पुनि झांईं की झांईं रही, गुरु बिन सके को टाल ।3
प्रथम ही संभव शब्द अमान, शब्द ही शब्द कियो अनुमान ।
मान महातम मान भुलान, मानत मानत बाबन ठान ।
फ़ेरा फ़िरत भयो भ्रमजाल, देहादिक जग भये विशाल ।
देह भई ते देहिक होय, जगत भई ते कर्ता कोय ।
कर्ता कारण कर्महि लाग, घर घर लोग कियो अनुराग ।
छौ दरशन वर्णश्रम चार, नौ छौ भये पाखंड बेकार ।
कोई त्यागी अनुरागी कोय, विधि निषेध मा बधिया दोय ।
कल्पेउ ग्रन्थ पुराण अनेक, भरमि रहै सब बिना विवेक ।
भरमि रहा सब शब्द में, सब्दी शब्द न जान ।
गुरु कृपा निज पर्ख बल, परखो धोखा ज्ञान ।4



धोखा प्रथम परखिये भाई, नाम जाति कुल कर्म बङाई ।
क्षिति जल पावक मरुत अकाश, ता महं पंच विषय परकाश ।
तत्व पांच में श्वासा सार, प्राण अपान समान उदार ।
और व्यान बाबन संचार, निजनिज थल निज कारज कार ।
इंगला पिंगला औ सुखमनी, इकइस सहस छौ सत सो गनी ।
निगम अगम औ सदा बतावे, श्वासा सार सरोदा गावे ।
धोखा अंधेरी पाय के, या विधि भया शरीर ।
कल्पेउ कारता एक पुनि, बढी कर्म की पीर ।5
योग्य जप तप ध्यान अलेख, तीरथ फ़िरत धरे बहु भेख ।
योगी जंगम सिद्ध उदास, घर को त्यागि फ़िरे बनबास ।
कन्दमूल फ़ल करत अहार, कोइ कोई जटा धरे शिर भार ।
मन मलीन मुख लाये धूर, आगे पीछे अग्नि औ सूर ।
नग्न होय नर खोरि न फ़िरे, पीतर पाथर में शिर धरे ।
काल शब्द के सोर ते, होर परी संसार ।
देखादेखी भागिया, कोई न करे विचार ।6
जब पुनि आय खसी यह बानि । तब पुनि चित्त मा कियो अनुमान ।
महीं ब्रह्म कर्ता जग केर, परे सो जाल जगत के फ़ेर ।
पांच तीन गुण जग उपजाया, सो माया मैं ब्रह्म निकाया ।
उपजे खपे जग विस्तारा, मैं साक्षी सब जाननिहारा ।
मो कह जानि सके नहि कोय, जौ पै विधि हरि शंकर होय ।
अस सन्धिक की परी बिकार, बिनु गुरु कृपा न होय उवार ।
मग्न ब्रह्म सन्धिक के ज्ञान, अस जानि अब भया भ्रम हान ।
संधि शब्द है भर्म मो, भूलि रहा कित लोग ।
परखेउ धोखा भेव नहि, अन्त होत बङ सोग ।7
जो कोई संधिक धोखा जान, सो पुनि उलटि कियो अनुमान ।
मन बुद्धि इन्द्रिय जाय न जान, निरबचनी सो सदा अमान ।
अकल अनीह अबाध अभेद, नेति नेति कै गावे बेद ।
सोऽहं वृत्ति अखंडित रहै, एक दोय अब को तहाँ कहै ।
जानि परी तब नित्याकार, झांईं सो भ्रम महा बेकार ।
संभव शब्द अमान जो, झांई प्रथम बेकार ।
परखेउ धोखा भेव निज, गुरु की दया उवार ।8
पहिले एक शब्द समुदाय, बाबन रूप धरे छितराय ।
इच्छानारि धरे तेहि भेष, ताते ब्रह्मा विष्णु महेश ।
चारिउ उर पुरु बाबन जागे, पंच अठरह कंठहि लागे ।
तालू पंच शून्य सो आय, दश रसना के पूत कहाय ।
पांच अधर अधर ही मा रहै, शुन्ने कंठ समोधे वहै ।
ओठ कंठ ले प्रगटे ठौर, बोलन लागे और के और ।
एक शब्द समुदाय जो, जामे चार प्रकार ।
काल शब्द संधि शब्द, झांई औ पुनि सार ।9
पांच तीनि नो छौ औ चार, और अठारह करे पुकार ।
कर्म धर्म तीरथ के भाव, ई सब काल शब्द के दाव ।
सोऽहं आत्मा ब्रह्म लखाव, तत्वमसी मृत्युंजय भाव ।
पंचकोश नवकोश बखान, सत्य झूठ में करे अनुमान ।
ईश्वर साक्षी जाननिहार, ये सब संधिक कहै विचार ।
कारज कारण जहाँ न होय, मिथ्या को मिथ्या कहि सोय ।
बैन चैन नहि मौन रहाय, ई सब झांई दीन भुलाय ।
कोइ काहू का कहा न मान, जो जेहि भावे तहं अरुझान ।
परे जीव तेहि यम के धार, जौं लो पावे शब्द न सार ।
जीव दुसह दुख देखि दयाल, तब प्रेरी प्रभु परख रिसाल ।
परखाये प्रभु एक को, जामे चार प्रकार ।
काल संधि जांई लखी, लखी शब्द मत सार ।10

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