02 फ़रवरी 2017

मोह-मन्दिर

अलख निरंजन लखै न कोई । जेहि बंधे बंधा सब लोई ।1। 
जेहि झूठे सब बाँधु अयाना । झूठी बात साँच कै माना ।2।
धंधा बंधा कीन्ह व्यौहारा । कर्म विवर्जित बसै नियारा ।3।  
षट आश्रम षट दर्शन कीन्हा । षटरस वस्तु खोट सब चीन्हा ।4।
चारि वृक्ष छव शाख बखानी । विद्या अगनित गनै न जानी ।5।  
औरो आगम करै विचारा । ते नहिं सूझे वार न पारा ।6।
जप तीरथ व्रत कीजे पूजा । दान पुण्य कीजे बहु दूजा ।7। 
(बीजक रमैनी -22)
मंदिर तो है नेह का, मति कोई पैठे धाय ।
जो कोई पैठे धाय के, बिन सिर सेती जाय । (साखी)
उस अलख (अदृश्य) निरंजन की परीक्षा कोई नहीं करता जिसके बन्धन में सब लोग बंधे हैं ।।1।।
जिस (असत्य) धारणा में सब (अबोध) जीव बंधे है, उस झूठी बात को उन्होंने सत्य (जानकर) मान रखा है ।। 2 ।।
यद्यपि जीव का शुद्ध स्वरूप सर्वथा कर्म-रहित है और उसकी स्थिति जड़ से नितांत भिन्न एवं असंग है, तथापि अपना स्वरूप भूलने से उसने गुलामी का धंधा उठा रखा है और विवशता का व्यवहार का रहा है ।।3।। 
मन ने (कल्पित, निराधार, अ-वस्तु, अ-पदार्थिक) छह आश्रम, छह दर्शनों की रचना की और छह रस का आस्वादन किया और छह सिद्धान्तों का निरूपण किया ।।4।।
चार (वेद रूपी) वृक्ष तैयार किये और उसमें छह (वेदांग रूप) शाखाओं का विस्तार किया । इतना ही नहीं, काल-मन ने अगणित विद्याओं का प्रवर्तन किया, एक व्यक्ति के लिए जानना असंभव तो है ही, उनकी गणना भी सरल काम नही ।।5।।
आगे और भी आगम शास्त्र विचारे, जिसमें वार-पार नहीं सूझता ।।6।। 
जप, तीर्थ, व्रत, पूजा, दान-पुण्य तथा ऐसे ही अनेकानेक नाना कर्म बना दिये ।।7।।
जिस मंदिर में आदमी कैद होता है वह तो स्नेह एवं मोह का है ।
हे कल्याणार्थी ! इसमें दौड़कर मत घुसो जो इस मोह-मंदिर में दौड़कर घुसेगा, वह व्यर्थ में अपना सिर कटा बैठेगा ।।22।।
अलख निरंजन अदृश्य काल है । 
काल के दो रूप हैं - एक समय की अवधि तथा दूसरा मन की कल्पना ।
इस रमैनी में मन की कल्पित अवधारणाओं को ही अलख निरंजन कहा गया है ।
सदगुरु कबीर कहते हैं कि - लोगों के मन की जो रूप-रेख रहित कल्पित अवधारणाएं हैं उन्हें वे परखने की कोशिश नहीं करते । आदमी का बन्धन गलत अवधारणाएं एवं कल्पनाएं ही है । आदमी रस्सी, लोहे की जंजीर या काष्ठ आदि में बंधा हो, तो उसे अपने बन्धन दिखाई दें, किन्तु बन्धन तो अदृश्य हैं । वे आदमी को सहज दिखाई भी नहीं देते । मन के अदृश्य बन्धनों को कोई बिरला देखता है ।
‘जेहि झूठे सब बाँधु अयाना’ 
बन्धन झूठे हैं, किन्तु जिन्हें ज्ञान नहीं है, वे इस झूठे को ही सच मान रहे हैं और खुशी खुशी बंधे हैं । मोह में बुद्धि भ्रमित होती है ।
‘धंधा बंधा कीन्ह व्यवहारा’ 
बंधा ही बन्धन का धंधा एवं व्यवहार करता है । बंधा का अर्थ है वशवर्ती एवं गुलाम ।
स्वतन्त्र जीव मन के मिथ्या बन्धन में पड़कर गुलाम हो गया ।
सदगुरु कहते हैं
‘कर्म विवर्जित बसै नियारा’ 
जीव कर्मों से अलग और जङ प्रकृति से सर्वथा पृथक एवं असंग है । अपने असंगत्व का बोध न होने से जीव सब में फँसा है । अपने आपको दृश्यों में मिला देना पीड़ा है और अपने ‘असंगत्व’ का सदैव भान रहना अमृतत्व है ।
सदगुरु कहते हैं कि - ऐसा शुद्ध असंग जीव सब में मिल-मिलकर बंधा है ।
इन बन्धनों से छूटने के लिए मनुष्यों ने छह आश्रम, छह दर्शन, छह रस एवं छह वस्तुओं की अवधारणाएं कीं । 
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास ये चार आश्रम हैं । इनमें ‘हंस’ एवं ‘परमहंस’ जोड़कर छह आश्रमों की अवधारणाएं हुई ।
योगी, जंगम, सैवड़ा (जैनी-बौद्ध), संन्यासी, दरवेश (फकीर) और ब्राह्मण ये छह दर्शन हैं ।
‘षटरस बास’ छह रसों का आस्वादन है ।
(यहाँ प्रसिद्ध षडरस - मीठा, नमकीन, कड़वा, तीता, कसैला तथा खट्टा अर्थ नहीं है)
बल्कि छह नामों का जप है ।
ब्राह्मणों का ‘ॐ’ सन्यासियों का ‘सोऽहं’ दरवेशों, सूफियों का ‘हू’ (अल्ला हूं) 
योगियों का ‘महीनाद’  सेवड़ा का ‘तत्वनाम’ एवं जंगमों का ‘निरंजन’ जप है । 
इस प्रकार षडदर्शनों के छह जप हैं ।
और भक्तजन अविनाशी राम-नाम जप करते हैं ।
ये सब अपने अपने नाम-जप का आस्वादन करते हैं । इसके अलावा भी अनेक प्रकार नाम एवं मंत्र आदि के जप हैं ।
‘षटै वस्तु चीन्हा’ 
उन्होंने अपने अपने सिद्धांत का अलग अलग निरूपण किया ।
ब्रह्मचारी ब्राह्मणों का ‘अद्वैत परमात्मा’ 
सन्यासियों का ‘अहं ब्रह्मास्मि’
फकीरों का ‘वायु का वायु में मिल जाना’ 
योगियों का ‘पिंड से उठकर ब्रह्मांड में पहुंचना’
जैनियों का ऊपर ‘आलोक आकाश में चंद्रशिला पर मुक्त होकर रहना’ 
जंगमों (शिवाचारियों) का ‘आकाशवत परमात्मा शिव में मिलना’
यह छह दर्शनों के सिद्धांत हैं ।
और भक्तों का विलक्षण सिद्धांत है कि - राम पुरुष है और सब जीव नारि रूप है । 
(ऐसा मानकर माधुर्य भक्ति करना)
इसके अतिरिक्त भी नाना मतों द्वारा नाना सिद्धांतों का निरूपण किया गया ।
‘चारि वृक्ष छव शाख बखानी’ 
चार वृक्ष छौ शाखा, चार वेद एवं छह वेदांग के लिए रूपक है ।
मनुष्यों के कल्याण के लिए चारों वेद (ऋक, यजु, साम, अथर्व) की और छह वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण निरुक्त, छंद, ज्योतिष) की रचना की गई ।
जो वेदाध्ययन तथा वेद मंत्रों के विनियोग एवं संस्कारों में सहायक होते हैं, उन्हें वेदांग कहा जाता है, वे उक्त छह हैं ।
वेद-मंत्रों के उच्चारण का विज्ञान बताने वाला ‘शिक्षा’ अंग है । 
कर्मकांड या अनुष्ठान पद्धति और यज्ञों, संस्कारों की विधियां ‘कल्प’ में बताई हैं ।
व्याकरण वह वेदांग है जिसमें भाषा के शब्दों, उनके रूप प्रयोग आदि पर विवेचन है ।
निरुक्त वह ग्रंथ है जिसमें वैदिक शब्दों की व्याख्या की गई है ।
(ईसा पूर्व सातवीं-आठवीं सदी के यास्क मुनि की प्रसिद्ध रचना ‘निरुक्त’ है)
छंदों का रूप बताने वाला छंद है ।
ज्योतिष का अर्थ है नक्षत्र विद्या या गणित ।
‘विद्या अनणित गनै न जानी’ 
विद्याएं असंख्य है । इतिहास, पुराण, उत्पाद-शास्त्र, निधि विद्या, तर्क विद्या, भूत विद्या, धनुर्विद्या, संगीत विद्या, प्राणी विद्या, वनस्पति विज्ञान, मनोविज्ञान, शरीर विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, कहाँ तक कहा जाए गिनकर समाप्त करना कठिन है, एक व्यक्ति का जानना असंभव है ।
‘औरो आगम करे विचारा’
मनुष्य और भी आगे बहुत शास्त्रों का विचार करता है ।
आगम का अर्थ है - वेदादि मान्य ग्रंथ, शास्त्र, दर्शन, तंत्रशास्त्र आदि ।
‘वाराही तंत्र’ नामक ग्रंथ के अनुसार सृष्टि, प्रलय, देवतार्चन, सर्वसाधन, पुरश्चरन, षटकर्म (शांति वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन और मारण) का साधन तथा ध्यान-योग इन सात लक्षणों से युक्त ग्रंथ को आगम कहते हैं ।
इस प्रकार लोग असंख्यात विद्याओं का विचार करते हैं ।
वाणी-जाल का इतना विस्तार है कि उसमें मनुष्य को ‘वारपार’ नहीं सूझता ।
‘ते नहिं सूझे वार न पारा’ 
बड़ा वजनदार वचन है । वार पार सूझने का मतलब है - अपने लक्ष्य का दिखाई न देना !
यदि मनुष्य अपने लक्ष्य को न देख सका तो बहुत विद्या पढ़कर क्या हुआ ?
इसीलिए सदगुरु का महानिर्देश है -
‘सार सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय ।’
लोग कल्याण के लिए ही नाना नाम, मंत्रों का जप करते हैं । देश के बहुत या सभी तीर्थों में बारंबार भ्रमण करते हैं । एकादशी, अष्टमी, चंद्रायण इत्यादि व्रत उवास करते हैं । पेड़, पहाड़, पानी, पाषाण आदि में देवी देवता मानकर उनकी पूजा करते हैं । अनेक प्रकार दान पुण्य करते हैं । 
ठीक है । अपनी अपनी समझ शक्ति के अनुसार कुछ धर्म-कर्म करना अच्छा है ।
किंतु इनसे भी कुछ आगे है, इसे सत्संग-विवेक द्वारा समझने का प्रयत्न करना चाहिए ।
मन्दिर तो है नेह का, मति कोइ पैठो धाय । 
जो कोइ पैठे धाय के, बिन शिर सेती जाय ।
बहुत महत्वपूर्ण साखी है ।
सदगुरु कहते हैं कि - मोह के मन्दिर में दौड़कर मत घुसो । उपर्युक्त वर्णित सारी विद्याएँ एवं सारे खट-करम मोह के मन्दिर हैं । इनमें दौड़ दौड़कर मत घुसो । मोह के मन्दिर में घुसने से मनुष्य का सिर कट जाता है अर्थात जो मोह से आवृत होता है उसका विवेक सो जाता है । धन-सम्पत्ति का मोह, जमीन-मकान का मोह, परिवार-समाज का मोह, मान-प्रतिष्ठा का मोह, शास्त्र-परम्परा का मोह, विद्या-वाणी का मोह, संप्रदाय-मान्यता का मोह, रस्म-रिवाज का मोह, देह तथा मन के संकल्प-विकल्पों का मोह, कहाँ तक गिनाया जाये ।
यह ‘दृश्य मात्र का मोह’ ही तो गले की फाँसी है । जिसने मोह का परित्याग किया वह अपने शुद्ध चेतन-स्वरूप में स्थित हुआ । वह अपने ‘असंगत्व’ में प्रतिष्टित हुआ ।
वही सच्चे अर्थ में मानवता का अन्नायक है ।
‘कहहि कबीर ते उबरे, जाहि न मोह समाय ।’
(बीजक चाचर 1)
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साभार - गोविन्द दास 
(कुछ शब्दान्तर के साथ)

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