27 अगस्त 2016

इनकी मृत्यु का रहस्य ?

सिर्फ़ अच्छे कर्म में आस्था रखने वालों को मेरे कुछ दिनों पूर्व प्रकाशित इस चित्र से बेहद कष्ट हुआ । उनके अनुसार यह गलत है । जबकि यह मेरी बात न होकर ऋषि मुनि और सन्तों के अनुभव का मिश्रित निचोङ थी ।
अच्छे कर्म आधारित यह दो प्रसंग पढ़कर चिन्तन करें ।
- हे अर्जुन ! मुक्ति ज्ञान से होती है । कर्म से नहीं । 
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हुजूर परमदयाल जी महाराज ने भी अपनी चिट्ठी दिनांक 6 अगस्त 1981 जो मानव जाति के नाम लिखी । उसमें भी यही भाव है कि - कर्म की फिलासफी बहुत गहरी है । इससे बचना बहुत मुश्किल है । उन्होंने मानवता का साधन किया । मानव जाति के लिए सारी आयु काम किया । इससे उनको क्या मिला ? मालिक के चरणों में

समाना आ गया । उनकी चिट्ठी नीचे दी जाती है ।
- रात के दस बजे हैं । पिटसबर्ग के बड़े अस्पताल में एक 2015 नम्बर के कमरे में पड़ा हूँ । अपनी 95 वर्ष की सारी आयु मेरे सामने घूमती है । साधन किया । अभ्यास किया । इनसे क्या समझा ? कि मैं वास्तव में एक चेतन का बुलबुला हूँ । मैं चाहता था और चाहता हूँ कि जब मेरा अन्तिम समय आए । तो मैं कैसे शरीर व मन इत्यादि को छोड़ कर ऊपर जाऊँगा । तो यह बता जाऊँगा । मगर अनुभव कुछ उलटा हो रहा है । मैं चाहता हूँ कि शरीर और मन से अलग हो जाऊँ । मगर जब शारीरिक कष्ट होता है । सिर चकराता है । तो यह असंभव हो जाता है । क्योंकि चार दिन से दिन रात निरन्तर ग्लूकोज़ दिया जा रहा है । अत: अब थक गया हूँ । और ऐसा करना असंभव हो गया है । अब रात के 12 बजे हैं । पेशाब के बारबार आने और सख्त जलन होने के कारण चार दिन से कुछ खाया नहीं जाता । जो ज्ञान ध्यान था । वो कहाँ गया ? काश! बड़े बड़े महात्मा यह हाल बताते कि उनके साथ क्या क्या बीती ? सांसारिक जीव इससे लाभ उठाते ।
खेद..मुझे सिवाए इसके कि पाँच दिन से चारपाई से बँधा हुआ हूँ । या पेशाब के समय जलन होती है । कोई विशेष कष्ट नहीं । मगर मालिक मुझे एक दुख है । मैंने जहाँ तक हो सका । जीवन में किसी सत्संगी का नहीं खाया । केवल मूलचंद रिज्जूमल कटनी वाले, दुर्गादास व मेरा लड़का रुपया भेजते हैं । जिससे मेरा निर्वाह होता है । अब यहाँ का खर्च परमात्मा ही जाने क्या होगा ? 150 डालर तो मकान का प्रतिदिन का किराया है ।
डाक्टर राव कहता है कि - चिन्ता मत करें । वह सब सहन करेगा । और यदि मैं अमेरिका में मरा । तो 2000

डालर और खर्च होगा । कर्म की फिलासफी को देखकर आँखों में आँसू आ रहे हैं । तो क्या मुझे फिर दूसरे जन्म में जो यह रुपया खर्च करेंगे । देने पड़ेंगे ? मस्तिष्क सोचने योग्य नहीं ।
(राधास्वामी मत के नामचीन सन्त)
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युधिष्ठर के नर्क जाने का कारण उनका मोह विचलित होकर ‘अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा’ बोलना बना । सिर्फ़ क्षणिक असत्य बोलने से उन्हें केवल नर्क देखने जाना पङा ।
जब युधिष्ठिर इस देह के साथ स्वर्ग में गया । तो वहाँ उसके सगे संबंधी पांडव और द्रौपदी नहीं थे ।
युधिष्ठिर ने पूछा - वे कहाँ हैं ?
उन्होंने बताया कि - वे तो नरक में है ।
युधिष्ठिर ने पूछा - वे नरक में क्यों गए ? 
जवाब मिला कि - अपने खोटे कर्मों को भोगने के लिए नरक मिला है ।
युधिष्ठिर ने कहा कि - मैं भी वहाँ जाऊँगा । जहाँ मेरे सगे संबंधी हैं ।
युधिष्ठिर को वहाँ पहुँचा दिया गया । वहाँ उसने नरक के दृश्य देखे । वे बहुत दुखदाई थे । वहाँ उसको पांडव और 

द्रौपदी नज़र नहीं आते थे । मगर उनकी आवाजें सुनाई देती थीं ।
युधिष्ठर ने पूछा - तुम कौन हो ? 
उन्होंने अपने नाम भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और द्रौपदी बताए ।
उन्होंने युधिष्ठिर से कहा कि - जब से तुम आए हो । हम हर तरह से सुख महसूस कर रहे हैं ।
पांडवों और द्रौपदी को नरक में किस चीज़ ने सुख पहुँचाया ? युधिष्ठिर के अन्दर जो दया और धर्म आया हुआ था । उसके फलस्वरूप वे नरक में भी सुख महसूस करने लगे । यानी नरक का प्रभाव ख़त्म हो गया । यह दया और धर्म का अभिप्राय है । (महाभारत से)
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असली रहस्य ये है -
द्वार न रूँधे पवन न रोके । नहीं अनहद अरुझावै ?
यह मन जाय जहां लग जबहीं । परमातम दरसावै ।
कर्म करै निहकरम रहै जो । ऐसी जुगत लखावै ।
सदा बिलास त्रास नहीं मन में । भोग में जोग जगावै ।
धरती त्यागि अकासहुँ त्यागै ? अधर मड़इया छावै ?
सुन्न सिखर के सार सिला पर । आसन अचल जमावै ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326