14 दिसंबर 2014

सिर्फ़ 3 शब्द - लीला अगम अपार

लीला अगम अपार - ये सिर्फ़ 3 शब्द लिखे हुये हैं । मैं शब्द पढता हूँ । मैं शब्द सुनता हूँ । मैं शब्द देखता हूँ । मैं शब्द बोलता हूँ । शब्द खाता हूँ । शब्द पीता हूँ । शब्द अनुभूत करता हूँ । और फ़िर निशब्द । हाँ फ़िर निशब्द । और फ़िर से सिर्फ़ 3 शब्द - लीला अगम अपार । वैसे ये 3 शब्द बेहद साधारण भी हैं । सहज सुलभ भी हैं । फ़िर अति गूढ भी हैं । अति दुर्लभ भी हैं । कोई अपरिचित नहीं हैं ये शब्द । कुछ नये भी नहीं हैं । इनके लिये किसी महान साहित्य को किसी महान लेखक महान कवि को भी पढने की ही आवश्यक्ता नहीं है । साधारण बोलचाल में, रोजमर्रा में, घर के बङे बूढों में, धर्मात्माओं में, दुष्टों में सभी जगह ये शब्द कभी न कभी, अक्सर ही आपने सुने होंगे - लीला अगम अपार ।
पर बहुत भिन्नता है । मेरे सुनने में । तेरे सुनने में । इसके में और फ़िर उसके में । आप याद करिये । जरूर ये शब्द आपने सुने होंगे । बात यह नहीं कि आप किस जाति के किस धर्म के और किस देश के हैं ? मैं इनकी नहीं शब्दों की बात कर रहा हूँ । सिर्फ़ 3 शब्द - लीला अगम अपार ।
और गौर से सोचिये । तो झिंझोङ देंगे ये शब्द । पर आपने कभी ऐसी नजर देखे ही नहीं ये शब्द -लीला अगम अपार । 
ध्यान रखना । मैं कोई अलंकारिक शब्द रचना नहीं कर रहा । कोई लेखन विद्वता भी नहीं । मैं वह सब आपको महसूस कराना चाहता हूँ । जो मुझे अनुभूत कराते हैं - शब्द । और फ़िर निशब्द । लेकिन अभी मैं सिर्फ़ " शब्द " पर नहीं कहना चाहता । अभी मैं सिर्फ़ 3 शब्द - लीला अगम अपार पर ही कहना चाह रहा हूँ । और ये कोई जटिल विषय नहीं । जटिल बात भी नहीं । ल ई ल अ यही तो । अ ग म यही तो । अ प अ र भी यही तो । मैं फ़िर से दुहराता हूँ । इसे कोई उच्च परिष्कृत जैसी हिन्दी का निबन्ध । कोई उपमा । कोई गद्यीय कवित्त । कोई अलंकारिक शब्द रचना जैसा समझने की भूल न करना । मैं हर शब्द बेहद रूखे या बेहद स्निग्ध या फ़िर ठोस

धातु ठोस पदार्थ या अकाटय सत्य जैसा ही कह रहा हूँ । निर्मम सत्य कह रहा हूँ । भले ही वह अनेकानेक पात्रों को अपनी स्थिति से बने भावनुसार प्रिय अप्रिय कुछ भी लगे । इसीलिये शायद अभी मैंने सिर्फ़ 3 शब्द ही लिये हैं - लीला अगम अपार । आपने अब तक गौर किया । सिर्फ़ 3 शब्द ? इनके अक्षर नहीं लिये । स्वर की भी बात नहीं कर रहा । स्वर पूर्व स्फ़ुरणा तो बहुत गहरे या बहुत दूर की बात हो जायेगी । स्फ़ुरणा पूर्व चेतना या चैतन्यता तो और भी अलग । और फ़िर चेतन । और फ़िर निशब्द । फ़िर ? सोचिये ये सब कितना सूक्ष्म हुआ जा रहा है । इसके तुलनात्मक तो ये 3 शब्द - लीला अगम अपार बहुत स्थूल बहुत स्थूल हो जाते हैं । जबकि मैं इनकी ही सूक्ष्मता की बात कर रहा हूँ । शब्द की तुलना में इन 3 शब्दों की सूक्ष्मता ?
पहला शब्द है - लीला । अब जरा सतर्क हो जायें । लीला यानी नाटक या प्रहसन । गौर करिये । सभी जगह लीला शब्द ही आया है । कर्म शब्द नहीं । कर्म एक बेहद गम्भीर शब्द है । और कर्म का कर्ता आवश्यक है । कर्म किये कर्म का कर्म फ़ल बना देता है । उसके लिये एक निश्चित क्रिया की आवश्यकता है । पर क्या लीला के साथ ऐसा है । मैं पुनः दोहराता हूँ । एकदम मोटे अन्दाज में निर्णय नहीं कर लेना । बङी बारीकी से सोचना । कर्म और लीला । एक ही क्रिया के दो नाम । मगर दोनों के अर्थ और दोनों के परिणाम बेहद भिन्न । जमीन आसमान जैसा अन्तर । ये ही अन्तर बताना मेरी मजबूरी जानिये । क्योंकि तुच्छ और विराट के सटीक निहितार्थ शायद आप ना समझ सकें ।
दूसरा शब्द है - अगम । सरल सा अर्थ है । जहाँ जाया न जा सके । सोचिये ऐसा भी कुछ है । कोई स्थान आदि कुछ ऐसा है । जहाँ जाया न जा सके । पर कोई तो गया होगा ? क्यों और क्या कारण है इस शब्द की उत्पत्ति का ? अगम । जाना नहीं हो सकता । फ़िर क्या है ये अगम ?
तीसरा शब्द है - अपार । ये भी बहुत ही सरल शब्द ही है । जिसका कोई पार या छोर न हो । पर किसने कहे हैं ये शब्द । क्या हारे हुये तैराकों ने । क्या सीमाबन्द योद्धाओं ने । इन शब्दों की कैसे और क्यों उत्पत्ति हुयी । क्या आवश्यकता थी इन शब्दों की ?
निर्णय करने में जल्दी न करें - अपार । कोई अन्त न पा सका । पर शायद में " कोई " शब्द गलत जोङ रहा हूँ । इसकी जगह होना चाहिये - हर कोई । या अधिकांश । या विपरीत तरह से कहने पर कह सकते हैं - कोई कोई ही । इक्का दुक्का । या फ़िर विरला ।
और ऐसे ही इक्का दुक्का लोगों में से एक ने लिखा - तेरा सांई तुझमें है । ज्यों पहुपन में बास ।
बहुत सरल है ये भी - ज्यों पहुपन में बास । फ़ूलों में खुशबू कैसे क्यों और कहाँ होती है ? यदि आप खोज सके । तो इन शब्दों का भेद भी खोज लोगे । लेकिन आपको आसानी हो जाये । इसीलिये कबीर ने आगे बात कुछ स्थूल कर दी - कस्तूरी का हिरन ज्यों । फिर फिर ढ़ूँढ़त घास ।
आप ये तो जानते ही होंगे । कस्तूरी सहज अनुभव में आने वाला पदार्थ है । तुलनात्मक फ़ूलों की खुशबू के । अतः दूसरी पंक्ति सिर्फ़ संकेत भर है । वह कोई ज्यादा काम की बात नहीं । असली बात तो " पहुपन में बास " की ही है । मैं फ़िर से कह रहा हूँ - पहुपन में बास, ये कोई साधारण बात नहीं है । यदि आप इसका पूरा मर्म भेद सके तो ।
सर्वात्म एकात्म तुझे ही प्रणाम । तेरे अलावा और है कौन ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326