03 जुलाई 2013

चावार्क दर्शन ? ही मेरे लिए अंतिम सत्य ? था - मुकेश


मुकेश शर्मा पोस्ट " ये ही मिस्टर परमात्मा है ? " पर  टिप्पणी ।
प्रणाम गुरुदेव ! प्रश्नों के उत्तर देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद । 
6-7 वर्ष की उमृ से मैं नियमित पूजा पाठ करता रहा हूँ । बचपन से ही भगवान में जरुरत से अधिक विश्वास था । या यूँ कहे । अंध विश्वास था । परन्तु अपने अंधविश्वास के कारण छात्र जीवन में काफी असफल ( 12 वीं क्लास में ३ बार फेल होना मेरे लिए 18 साल की उमृ में बहुत बड़ा झटका था । जिसने मुझे भगवान के बारे में सारे कांसेप्टस बदलने पर मजबूर कर दिए । और इसके बाद मुझमें भी अपने आप बहुत ज्यादा बदलाव हो गए । और मैंने मेरी पढाई भी पूरी की) हुआ । तब मैं परिणाम स्वरुप भौतिक संसार को ही सत्य मानने लग गया । इन सब आध्यात्मिक बातों भगवान को झूठ मानने लग गया । सोचता - सब कुछ पुरुषार्थ से ही संभव है । संसार में राजनीति से बङा कुछ नहीं है । मतलब यदि दर्शन की बात की जाये । तो चावार्क दर्शन ? ही मेरे लिए अंतिम सत्य ? था । परन्तु ​मन की शांति के लिए पूजा पाठ अवश्य करता रहा । शायद मेरे पूर्व जन्म के संस्कार हों । परन्तु आपने मुझे अपनी सनातन संस्कृति के एक हिस्से से परिचित करवाया । सबसे महत्वपूर्ण भगवान का मतलब समझाया । आपके ब्लॉग पर आया । भगवान ( परमात्मा) को समझने की शुरआत की । पूरा समझ नहीं पाया । परन्तु ऐसा लगता है कि गलत दिशा में नहीं हूँ । जानता हूँ । बहुत गूढ़ रहस्य है । जितना जानूँ । कम है । आपके द्वारा परिचित कराई गयी पंक्तियां मुझे परमात्मा के बारे में बहुत कम शब्दों में परन्तु विस्तृत व्याख्या करती हैं । और एक नयी उर्जा से भर देती हैं । जो इस प्रकार हैं - कैसा अदभुत खेल बनाया । मोह माया में जीव फ़ँसाया । दुनियाँ में फ़ँसकर वीरान हो रहा है । खुद को भूलकर हैरान हो रहा है । तू अजर अनामी वीर भय किसकी खाता । तेरे ऊपर कोई न दाता । ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखराशी । जङ चेतन ग्रन्थि पर गई । यधपि मृषा छूटत कठिनई
परन्तु मेरी महत्वाकांक्षायें मुझे पूर्ण रूपेण भक्ति में जाने से रोकती हैं । ये महत्वाकांक्षायें मेरी बचपन से ही हैं । परन्तु ये महत्वाकांक्षायें कोरे निजी स्वार्थ वश नहीं हैं । अपितु इन महत्वाकांक्षाओं में एक स्वर्णिम भारत का सपना बसता है । जिसमें सनातन संस्कृति की स्थापना भी महत्वपूर्ण है । इन सब कार्यों की पूर्ति का रास्ता राजनीति ही है । eng की पढाई करने के साथ साथ और पश्चात भी पिछले 6 साल से मैं अध्ययन और चिंतन कर रहा हूँ कि कैसे इन कार्यों को अंजाम दिया जाये । और मेरा भारत पूर्व समय की भांति समृद्ध बने । इस कार्य के लिए मुझे राजीव दीक्षित जी ( इस समय चील पक्षी के रूप में 84 लाख योनियों में हैं ) से काफी प्रेरणा और ज्ञान मिला । और आपसे वैराग्य को जाना । जिससे निस्वार्थता की भावना जन्मी । और सही दिशा मिली । जिसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद । गीता रामायण तो मैंने बचपन में कई बार पढ़े । परन्तु अज्ञान वश अंधविश्वास ही उपजा| जैसा कि आप कहते हैं कि ये पूर्व जन्म संस्कार कारण होते हैं । शायद ये मेरे पूर्व जन्म के संस्कार हों । 
एक बात और मुझे सबसे ज्यादा परेशान करती है कि विभिन्न देशों के साथ साथ भारत की आधी से अधिक जनसंख्या के पास खाने को भोजन नहीं है । इसके अलावा इतने अपराध हैं| इसीलिए देश की समस्याओं की और मेरा अधिक ध्यान है । इसके अलावा मुझे किसी और चीज़ से मतलब नहीं ( आपके आशीर्वाद से मेरी आध्यात्म में रूचि अवश्य बरक़रार रही है । परमात्मा को जानने की भी तीव्र इच्छा है ) है । परन्तु कभी कभी डर भी लगता है कि इन कार्यों को कैसे पूरा करूँगा । वैसे आपके ज्ञान से अदभुत निडरता अवश्य आई है । परन्तु डर का सबसे बड़ा कारण है । मेरी ये सोच कि सोचना अलग बात है । और व्यावहारिकता में इन्हें पूरा करना अलग । क्योंकि मुझे अपने लक्ष्य ( स्वर्णिम भारत) से अधिक प्यारा कुछ नहीं है । बस यही बात मुझे डराए रहती है कि अपना कार्य पूरा कर पाउँगा । या नहीं । अब मेरी समस्या ये है कि ऐसा कोई उपाए बतायें कि परमात्मा की भक्ति और अपने लक्ष्य ( स्वर्णिम भारत) दोनों की प्राप्ति मैं कर सकूँ । वैसे गीता आपकी कृपा से अब अच्छे से समझ आई है । और मेरी समस्या का समाधान भी करती है । परन्तु यदि आप भी मार्ग दर्शन करेंगे । तो मुझे एक नई एनर्जी मिलेगी । कृपया मार्गदर्शन करें । मुकेश शर्मा । अलवर । राजस्थान । उम्र 23 साल ।
इस पर मेरे विचार शीघ्र ही इसी पेज पर आयेंगे ।


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