29 अक्तूबर 2012

जो भी होता है जीव के कर्म संस्कार अनुसार ही होता

पहला ईमेल - राजीव जी ! मुझे याद है आपने एक लेख में लिखा था कि - गुरूदेव ने ये बताया कि इसका संघर्ष का टाइम 15 साल है या 2 साल है या जितना भी । मैं ये जानना चाहता हूँ कि मेरा कितना टाइम है । इस ज्ञान को प्रक्टीकल के तौर पर जानने में या इस जन्म में मैं ये नहीं जान पाऊँगा ?
कृपा करके फोन पर बताईये, मिस काल कर दीजियेगा । बाबा फ़कीर चन्द जी
आपका सोहन
(Saturday 27 October 2012 7:17 PM)
(ये ईमेल (ऊपर) पहले मुझसे inbox फ़ोल्डर से गलती से डिलीट हो गयी फ़िर ध्यान आने पर मैंने इसे TRASH फ़ोल्डर से प्राप्त किया)
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दूसरा ईमेल - राजीव जी ! मेरे पहले गुरूजी जिन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और मुझे अपनी शरण में लिया । वो हैं - श्री कृष्ण गिरी जी महाराज और उन्होंने जो कहा था उससे मैं एक कदम भी आगे नहीं चल पाया हूँ । संत वचन सिद्ध होते हैं जो बोल दिया, हो गया ।
और राजीव जी ! आपने जो गुरूजी के आश्रम के बारे में ब्लाग पर बताया ।
ऐसे हमारे गुरूजी के 7 आश्रम हैं और एक से एक भव्य और हमारे गुरूजी के पास 5 गाङियाँ हैं, भक्तों की दान की हुई । राजीव जी ! जो भी होता है, जीव के कर्म संस्कार अनुसार ही होता है । किसी की ताकत नहीं कि किसी भी जीव को कोई भी उसके कर्म संस्कार से हट के हासिल करवा सके ?
शायद यही सत्य है ।
आपका सोहन गोदारा
(Sunday 28 October 2012 6:35 PM)
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अगर सनातन ज्ञान परम्परा का (भी) ऐतहासिक अध्ययन किया जाये तो सिद्ध और स्थापित नामी गुरुओं के भी गिने चुने शिष्यों के नाम देखने को मिलते हैं । कबीर साहब के धर्मदास, बंकेज, चतुर्भुज । एक शिष्य का नाम अभी ध्यान नहीं आ रहा शायद सहदेव है ।
इनमें धर्मदास का ही नाम खास सुनाई देता है । रैदास - मीरा जी, रामकृष्ण - विवेकानन्द, समर्थ गुरु रामदास - छत्रपति शिवाजी, अद्वैतानन्द - स्वरूपानन्द, गुरुनानक - बाला, मरदाना, प्राचीनकाल में दुर्वासा - श्रीकृष्ण, वशिष्ठ - राम, अष्ट्रावक्र - जनक, राजा जनक - शुकदेव आदि आदि ।
अब एक प्रश्न उठता है, क्या इन गुरुओं ने गिने चुने 100-50 शिष्य ही बनाये थे या फ़िर कुछ हजार तो होंगे ही फ़िर वे सब कहाँ गये ? कि उनका नाम तक नहीं लिया जाता और 1-2 शिष्य का ही नाम शेष रह जाता है ।
कितने लोग सन्तों की (वाणी) किताबें पढ़ते हैं, कितने श्रद्धा से मत्था टेकते हैं, कितने आश्रम में जाते हैं, कितने भजन सतसंग आदि कराते हैं, कितने दान दक्षिणा चढाते हैं और ज्ञान मिलता है सिर्फ़ 1-2 को, नाम मिलता है सिर्फ़ 1-2 को ।
स्वयं मेरे द्वारा अनेकों जीवों की सर्वोच्च अद्वैत आत्मज्ञान की ‘निर्वाणी सतनाम’ हँसदीक्षा कराई गयी है । जिनमें से अब बहुतों की मुझे याद भी नहीं है । बहुत से कहाँ हैं मुझे पता नहीं ।
लेकिन दीक्षा प्राप्त कुछ शिष्य ऐसे होते हैं जो न सिर्फ़ याद रहते हैं । बल्कि हम उन्हें याद करने पर विवश हो जाते हैं । क्योंकि वे शिष्यता मानदण्डों का % सभी अंगों में तेजी से पूरा कर रहे होते हैं । अतः इसी बहाने मैं आपको किसी भी गुरु के तरीके और गुरु शिष्य सम्बन्ध और ज्ञान यात्रा के आंतरिक रहस्यों से परिचित कराता हूँ । 
10 साल के अद्वैत ज्ञान समय में मैं लगभग शुरू के एक महीने से ही शिक्षक, मार्गदर्शक के रूप में नियुक्त हो गया और यथासंभव तेजी से कार्य करने लगा । कुछ हजार दीक्षायें हुयी और 100 से भी कम शिष्य मेरे व्यक्तिगत सम्पर्की हुये ।
(यहाँ तक 29 October 2012 को लिखा गया)
अब आगे - मैंने उनको उनकी यथासंभव पात्रता अनुसार प्रशिक्षित किया और स्थिरता के संतोषजनक मुकाम तक पहुँचाया । लेकिन जैसा कि व्यवहारिक है । इस जीवन यात्रा में कारवां बनता है, बिछुङता है । अलग अलग परिस्थितियों वश कुछ चलने के बाद वे (सीखने के बाद) स्वयं संघर्ष हेतु यात्रा पर निकल गये और नये लोग (शिष्य) आ गये ।
किसी भी स्कूल जैसा नया सत्र, नये विद्यार्थी ।
ऊपर के ईमेल लेखक सोहन गोदारा (हमसे जुङे हुये लगभग 18 महीने) जैसे विद्यार्थियों की मुझे ज्यादा चिंता नहीं रहती क्योंकि उनके (सिर्फ़ इसी) ईमेल से ही समझ सकते हैं कि उन्हें काफ़ी ज्ञान है और मुझे लगता है वे मजबूत स्थिति में हैं । 
अतः योग्य छात्रों पर मेहनत करना ज्यादा उचित नहीं होता ।
मैंने कई बार कहा है कि यदि सम्भव हुआ तो मुझे 1000 अच्छे साधक तैयार करने (की भावना) है और किसी भी आत्मज्ञान के मुक्तमंडल में यह संख्या बहुत उच्च मानी जाती  है ।
यदि कबीर, रामकृष्ण, गुरुनानक जी जैसी सिद्ध और निर्विवाद गुरु परम्परा को देखा जाये तो इनके यहाँ 50 भी मध्य स्तर के साधक नहीं थे ।
खैर..इस समय सिर्फ़ 4 शिष्य मेरे विशेष प्रशिक्षण में हैं ।
अशोक, संजय, किरन और मीनू । एक अन्य शिष्य राकेश जी सिर्फ़ 4 महीने पहले (जुलाई में) जुङे । और उनकी पढ़ाई समाप्त भी हो गयी । किरन और संजय सिर्फ़ 8 महीने पहले (मार्च में) जुङे और आज दूसरों को सिखाने की स्थिति में है ।
अशोक सिर्फ़ 5 महीने पहले (जून में) जुङा और पूरा पागल हो गया । मतलब पंजाबी में गल पा ली । मीनू अभी सिर्फ़ 2 महीने पहले (सितम्बर शुरूआत में) जुङीं और मुझसे अभी कोई एक महीने से जुङी । 
मीनू को छोङकर बाकी 3 शिष्य स्थायित्व की स्थिति में हैं । ये चारों शिष्य अपनी अपनी पात्रता अनुसार अलग अलग प्रकार के हैं और तेजी से सीखते हैं । लेकिन यदि प्राप्ति के अनुसार आंकलन किया जाये तो इनमें सबसे शीर्ष पर संजय है क्योंकि इसने कई अन्य जीवों को चेताया भी है ।
ध्यान की प्रगति के आधार पर किरन शीर्ष पर है । ये सतनाम से पवित्रता को प्राप्त हो चुकी है । शिष्य का समर्पण क्या होता है, इस आधार पर अशोक शीर्ष पर है ।
इच्छाओं से रहित होना (जो कि आत्मज्ञान प्राप्ति हेतु सबसे बङी आवश्यकता है) इसमें बिलकुल नयी और बहुत कम समय की मीनू शीर्ष पर है ।
लेकिन इन चारो से अलग हमारे मुक्तमंडल में राकेश जी नम्बर 1 हैं क्योंकि ज्ञान, ध्यान, समर्पण, सेवा आदि शिष्यता के सभी महत्वपूर्ण अंगों में वह 100% स्वस्थ है । 
अब आप सहज ही अन्दाजा लगा सकते हैं, मैं एक ही हूँ, श्री महाराज जी भी वही हैं । ज्ञान और दीक्षा भी वही है, आश्रम भी वही है ।
जो लोग मुझसे या श्री महाराज जी से व्यक्तिगत मिल चुके हैं । वे जानते हैं कि हम किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करते । अतः जो भी अन्तर होता है वह शिष्य की पात्रता में होता है और वह उसी अनुसार पाता है ।
इस लेख में मैंने सब कुछ स्पष्ट करने के बजाय चिंतन के लिये कुछ बिंदु अस्पष्ट छोङ दिये हैं ।
फ़िर आप सोचिये । कबीर के सदगुरु होने में क्या आपको कोई शंका है फ़िर उनके शिष्यों में सिर्फ़ धर्मदास का ही नाम क्यों लिया जाता है ? और इसी तरह रामकृष्ण के विवेकानन्द, रैदास की मीरा जी आदि आदि ।

1 टिप्पणी:

giaonhan247 ने कहा…

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