07 जून 2012

और तुम रोते हु्ये बोले - को हम को हम ?

हे भेङ बकरियों के वंशजो ! जब तुम ( जीव ) माता के गर्भ में उल्टे लटके थे । तब तुम बेहद दुखी होकर परमात्मा से प्रार्थना करते थे कि - इस बार अवश्य ही अपने जन्म को सफल करोगे । और परम तत्व को प्राप्त होओगे । परन्तु जैसे ही तुम्हारा ( जीव का ) जन्म होता है । तुम्हें रुलाया जाता है । इससे तुम्हारी ( जीव की ) तन्द्रा या  वह " अवस्था " भंग हो जाती है । जिसमें तुम्हारा ( जीव का ) जन्म हुआ था । तुम ( जीव ) रोते हो । और रोने पर तुम्हें शरीर का भान होता है । और शरीर का भान होने पर पूर्व जन्मों के संस्कार वश माया का पर्दा आगे आ जाता है । और तुम ( बालक ) रोते हु्ये कहते हो - को..हम ।  को..हम । और सगे सम्बन्धी रिवाज रूप में तुम्हें शहद चटाते है । जिसे घुट्टी देना भी कहते है । बस यहीं पर तुम ( बालक ) में मैं पन भाव जागृत होता है । और इस दुनिया के स्वादों का लोभ पैदा होता है । जो मृत्यु पर्यंत तुम्हारा साथ नहीं छोड़ते । इस दुनिया में आकर तुम इस स्वपन ( सृष्टि ) को ही सच मान लेते हो । और इस कल्पित सुख से सुखी । और दुख से दुखी होते हो । और पिछले संस्कार भोगते हुए ही अपने ऊपर भविष्य के नए संस्कार बुनने में लग जाते हो । यदि पूर्व जन्म के सुकर्मो के कारण तुम्हें पूर्ण सदगुरु  मिल जाये । तो ही तुम्हें ( जीव को ) ज्ञान होता है कि ( संस्कारों का ) नव निर्माण तुम्हारे लिए कितना घातक होता है ?? पूर्ण सदगुरु द्वारा चेताए हुए जीव को (
निर्वाणी अजपा ) नाम ? की दात प्राप्त होती है । जिसके रमण से संसार के सब रहस्यों से पर्दा उठ जाता है । और जीव को अपने प्रथम प्रश्न - को..हम  को.. हम का उत्तर भी मिल जाता है । और जिन्हें दुर्भाग्य वश ये दात प्राप्त नहीं हो पाती । उन्ही को श्री गुरु नानक देव जी कहते है ।
गुन गोबिंद गायो नही जनम अकारथ कीन । कह नानक हरि भज मना जिह बिध जल की मीन ।
हे बन्दर की तरह फ़ालतू की उछल कूद में जीवन गंवाने वाले कपि श्रेष्ठो ! यदि अब अवसर होते हुए भी  तुमने उस गोबिंद गुण ( निर्वाणी - वाणी रहित ) नाम ? को न गाया । तो तुम्हारा यह जन्म भी अकारथ हो जायेगा । इसलिए - हे मन ( मुखो ) ! इस प्रकार से गोबिंद का भजन करो । जिस प्रकार 
जल में मछली रहती है । यदि 1 क्षण को भी उसे जल से अलग कर दें । तो वह तड़पती है । उसी प्रकार 1 क्षण भी व्यर्थ न  करो । जिस प्रकार जल मग्नता ही मछली का स्वभाव है । उसी प्रकार सुमिरन ही तुम्हारा स्वभाव बन जाये । तो ही कुछ बात बन सकती है ।
बिखियन सो काहे रचियो निमख ना होहि उदास । कह नानक भज हरि मना परे ना जम की फाँस ।
हे चाशनी में फ़ँसकर फ़ङफ़ङाती मक्खियो ! इस दुनिया में आकर तुम इस दुनिया के विषयों ( वासनाओं ) में अपने निज स्वभाव को भूलकर तुम्हें यहाँ के झूठे  सुख ऐश्वर्य में अपने मालिक की 1 पल भी याद नहीं आती । कभी भी उसके लिए उदास नहीं हो्ते । उस हरी को स्मरण करो । जिससे तुम भव व्याधि ( काल जाल ) से मुक्त हो जाओगे ।
तरनापो एयो ही गयो लिओ जरा तन जीत । कह नानक भज रे मना आउद जात है बीत ।
हे जवानी आने से पहले ही बुढा गये पहलवानों ! तुम्हारी युवावस्था तो मित्रों । माता । पिता । अर्धांगिनी ( पत्नी ) पुत्र । पुत्रियों के साथ बीत गयी । और तुम्हारा शरीर भी वृद्ध हो रहा है । ये सब जो 
इनके लिए अब तक किया । उससे तुम्हारा कोई फ़ायदा नहीं होगा । उस संजीवन नाम का सिमरन और कब करोगे ? जो इस लोक से तुम्हारी रक्षा करता है । और उस लोक की कुंजी है । और अब तुम्हारी धीरे धीरे आयु भी बीती जाती है ।
बिरद भयो सूझै नही काल पहूँचयो आन । कहो नानक नर बावँरें क्यों ना भजे भगवान ।
हे अक्ल बन्दरों में श्रेष्ठ ! अब तो तुम वृद्ध हो गये हो । तुम्हारे वही मित्र । अर्धांगिनी । पुत्र । और पुत्रियां जिनके लिए तुमने अपना जीवन लुटा दिया । तुम्हारी तरफ देखते भी नहीं हैं । और तो और - हे बुद्धिमान ! अब तेरी बुद्धि भी तेरा साथ छोड़ चुकी है । काल तेरे सर पर मंडरा रहा है । फिर भी तुझसे इनका मोह नहीं छूटता । अरे मुर्ख ! अब तो भगवान का नाम ले ले ।
धन दारा संपत्ति सगल जिन अपनी करि मानि । इनमें कछु संगी नहीं नानक साची जानि ।
हे मायावती के चमचे ! तेरा यह धन जिसे तूने धीरे धीरे अपनी युवावस्था बेच कर जमा किया है । और अपना कहता है । तेरी पत्नी । जिसके मोह में तू ( बुढ्ढी हो जाने के बाद भी ) पड़ा हुआ है ( अब तो छोङ दे ) । और अपनी मान बैठा है । इनमे से तेरे साथ कोई नहीं जायेगा ( या ले जायेगा भाई ? ) । इस बात को सच मान ले । और जो तेरे साथ जाने वाली वस्तु ? ( नाम जप ) है । समय रहते उसकी कमाई कर ।
पतित उधारन भै हरन हरि अनाथ को नाथ । कह नानक तिह जानिए सदा बसत तुम साथ ।
हे नयन सुख और नैना देवी ! जिस मोह माया के चलते तुम आँख वाले अंधे बने हुए हो । उसके ही कारण तुम में स्थित वह मालिक पापो से तुम्हारा उद्धार कर्ता और अनाथो के नाथ से विमुख हो गए हो । किसी पूर्ण सदगुरु की शरण से तुम्हारी आँखे खुल जायेंगी । और तब तुम्हे ज्ञात होगा कि - वह तो हमेशा से ही तुम्हारे साथ था । जिससे तुम्हारे सब भय समाप्त जायेंगे ।
तन धन जे तो को दिओ तासो नेह ना कीन । कह नानक नर बाँवरे अब क्यों डोलत दीन ।
हे अति सयाने काले कौवे ! जिस मालिक ने तुझ पर कृपा करके मान । धन दिया । तुझे यह मानुष तन दिया । जिसके लिए इंद्र तक अपना पद छोड़ने को तत्पर रहते है । उस तन को पाकर भी तूने स्वामी से जरा भी प्रेम न 
रखा । और अब ये धन तेरे साथ जा नहीं सकता ( वैसे सोचता यही था । किसी जुगाङ से ले जायेगा ) । तन से तूने विषयों के आनंद लिए । जो अब क्षीण हो चूका है ( अब क्या करेगा बोल ? ) । अब दीन गरीब होकर क्यों फिरता है ( अब ले ले ठेंगा ) ।
तन धन संपै सुख दिओ अर जह नीके धाम । कह नानक सुन रे मना सिमरत काहे ना राम ।
हे लक्ष्मी वाहन की नस्ल ! उस मालिक ने इतना धन सम्पदा और इन सबसे सर्वोपरि यह मानस देह दी । तेरे रहने के लिए भवन दिए । तू उस मालिक को ही भूल गया । नानक देव कहते हैं - अब इन सबको पाकर भी तू राम को क्यों नहीं भजता ?
सब सुख दाता राम है दूसर नाहिन कोय । कह नानक सुन रे मना तिह सिमरत सुख होय ।
हे बकरा बोल बोलक ! असली सुख देने वाला । वह दाता राम है । और दुसरा कोई अन्य नहीं । जो असली सुख दे सके । हे मन ! तू उसे ही क्यों नहीं सिमरता ? जिससे सब सुखी होते है ।
जिह सिमरत गत पाइए तिह भज रे तै मीत । कह नानक सुन रे मना अउध घटत है नीत ।
हे अक्ल बेचकर खा गये श्रेष्ठ प्राणी ! जिस मालिक का सिमरन करने से परम पद की प्राप्ति होती है । हे मेरे मित्र ! मालिक के उस अमोलक ( निर्वाणी अजपा ) नाम ? को ही भज । क्योकि तेरी आयु प्रतिदिन ही कम होती जा रही है ।
पांच तत को तन रचियो जानो चतुर सुजान । जिन में उपज्या नानका लीन ताहे मै मान ।
हे कागज के पहलवानों ! तुम्हारा यह शरीर 5 ( कच्चे ) तत्वों से बना है । और इस शरीर के रहस्यों से तुम्हें धुर का भेदी । चतुर सुजान ( गुरु )  अवगत करवा देगा । इस बात को मान लो कि - तुम अपने निज को प्राप्त होओगे । अर्थात जहाँ से तुम्हारी उत्पत्ति हुई है । उसी परम तत्व में लीन हो जाओगे ।
घट घट मे हरि जू बसै संतन कहयो पुकार । कह नानक तिह भज मना भव निधि उतरहि पार ।
हे कान में मशीन लगाकर भी ऊँचा सुनने वालो ! संत पुकार पुकार कर कहते है कि - प्रत्येक शरीर में हरी आप ही विराजमान है । पर हम पर उस समय यौवन का मद छाया रहता है । और ये सब बातें उस समय बेकार लगती है । परन्तु जैसे ही वह नशा उतरता है । उस समय तक बहुत देर हो चुकी होती है । और अब साधन बनता नहीं । इसलिए - हे मन ! समय रहते जाप कर । जिससे भव सागर के पार उतर जाय ।
सुख दुख जिह परसे नही लोभ मोह अभिमान । कह नानक सुन रे मना सो मूरत भगवान ।
हे काग मति ! जिस मनुष्य को सुख दुख छुते नहीं । और जिसे इस दुनिया की किसी भी चीज का लोभ न हो । 
कोई मोह न हो । एवम किसी प्रकार का घमंड न हो । उसे तू भगवान के समान ही जान ।
उसतति निंदाया नाहि जिहि कंचन लोह समान । कह नानक सुन रे मना मुकत ताहि तै जान ।
हे हारे हुये जुआरियों ! जो मनुष्य अपनी स्तुति और निंदा किसी से न प्रसन्न होता है । न विचलित होता है । जिसके लिए स्वर्ण और लोहे में कोई भेद नहीं है । नानक देव कहते है - सुन ! मुक्ति उसी पुरुष के द्वारा संभव है ।
हरख सोग जाके नही बेरी मीत समान । कह नानक सुन रे मना मुकत ताहे तै जान ।
हे सर्वदा दुखीलाल ! जो मनुष्य हर्ष से हर्षित नहीं होता । एवं दुख उसे दुखी नहीं करते । और जिसके लिए शत्रु और मित्र सब समान होते है । वह कोई साधारण मनुष्य नहीं ? मानस देह में मुक्ति दाता ही होता है ।
भै काहू को देत न न भै मानत आन । कह नानक सुन रे मना ज्ञानी ताहि बखान ।
हे गुंडे भाईयो ! जिसके द्वारा इस पृथ्वी पर किसी भी जीव को कोई भय या हानि नहीं होती । और उन्हें स्वयं भी किसी से कोई भय नहीं होता । नानक देव जी कहते है - वो ही ज्ञानी है ।
जिहि बिखिया सगली तजी लिओ भेख बैराग । कह नानक सुन रे मना तिह नर माथे भाग ।
हे पाप भूषण । हे अशुभ कर्म शिरोमणी ! जिसने सब प्रकार के बुरे कर्मों का त्याग कर दिया है । और वैरागी के भेष में रहता है । नानक देव जी कहते है कि - उस नर के लिए भाग । और अपना भाग्योदय करवा ।
जिहि माया ममता तजी सभ ते भयो उदास । कह नानक सुन रे मना तिह घट ब्रह्म निवास ।
जिस मनुष्य ने लोभ । लालच । मित्र । पुत्र । और सब प्रकार की ममता को तज दिया । तेरा । मेरा आदि की माया को छोड़ कर । उस मालिक से मिलन की तड़प जगा ली । नानक देव जी कहते हैं - उस मानस  देह में  बृह्म का वास होता है ।
जिहि प्रानी हो मैं तजी करता राम पछान । कह नानक वह मुकत नर एह मन साची मान ।
जिस प्राणी ने अपना अहंकार तज दिया । तो समझो आधी बाजी जीत ली । क्योंकि 1 म्यान में 2 तलवारे नहीं हो सकती । अपना अहम त्याग कर जो राम तत्व को पहचान लेता है । वह इस नर तन में ही मुक्ति पा लेता है  ।
भै नासन दुरमति हरन कलि में हरि को नाम । निसि दिन जो नानक भजै सफल होहि तिह काम । 
श्री नानक देव जी कहते है - इस कलियुग में केवल हरी का नाम ही चेते हुए जीवो का सहारा है । इस हरी नाम के सिमरन से सभी प्रकार के भय चेते हुए जीव के पास भी  नहीं फटकते । हरी सिमरन से करोड़ों जन्मो के संचित कर्म शनैः शनैः स्वत ही क्षय होने लग जाते हैं । इस प्रकार हरी का नाम सभी बुराइयों को हरने वाला है ।
जिहबा गुन गोबिंद भजहु करन सुनहु हरि नाम । कह नानक सुनि रे मना परहि न जम के धाम ।
जब प्राणी की जिह्वा गोबिंद भजन में रस पाने लगती है । और कानों को हरी नाम के सिवा कोई बात सुनाई नहीं देती । नानक देव जी कहते हैं -  वह प्राणी जम के फंदे में नहीं पड़ता । और मुक्त हो जाता है ।
जो प्रानी ममता तजे लोभ मोह अंहकार । कह नानक आपन तरै औंरन लेत उधार ।
जब प्राणी के सब विकार ( काम । क्रोध । लोभ । मोह । अहम ) ख़त्म हो जाते हैं । तो वह प्राणी खुद तो भव सिन्धु पार हो ही जाता है । अपने साथ औरों का भी उद्धार करता है ।
जिउ सपना अरु पखना ऐसे जग को जानि । इनमें कछु साचो नहीं नानक बिन भगवान ।
जिस प्रकार हम स्वपन देखते हैं । और अज्ञान वश उस अवस्था को ही सत्य मान लेते हैं । परन्तु जब नींद टूटती है । तब पता चलता है कि - मैं तो स्वपन देख रहा था । ठीक उसी प्रकार ये सृष्टि भी 1 स्वपन ही है । और हम इसे भी सच ही मान चुके हैं । जब यह स्वपन टूटेगा । तब बहुत देर हो चुकी होगी । हरी भजन की कृपा से समय रहते इस मिथ्या जगत का भास हो जाता है । इसलिए - हे प्राणी ! तू इस जगत को स्वपन जान ले । और केवल 1 ही चीज जो सत्य है । वह केवल 1 परमात्मा ही है । यह जान ले ।
निसि दिन माया कारने प्रानी डोलत नीत । कोटन में नानक कोउ नारायन जिह चीत ।
इस मन माया के चक्कर में फंस कर प्राणी दिन रात दौलत शोहरत पैसे के ख्वाब देखता है । और इनके लिए रोज  मारा मारा भटकता है । मजे की बात देखिये कि अगर कोई इन्हें काल माया से अवगत कराये । इनसे ज्ञान की बात करे । तो ये ज्ञानी ? उसे मुर्ख मानते हैं । इसीलिए नानक देव जी कहते हैं - करोड़ों में कोई बिरला ही होता है । जिस पर नारायण की कृपा होती है । वे ही पार लग पाते हैं ।
जैसे जल ते बु्दबुदा उपजै बिनसे नीत । जग रचना तैसे रची कह नानक सुनि मीत ।
जैसे जल से बुलबुला उठता है । और पल में ही फूट जाता है । इस सृष्टि की रचना भी उसी प्रकार बनती बिगङती रहती है ।
प्रानी कछु ना चेतई मदि माया के अंध । कह नानक बिन हरि भजन परत ताहि जम फंध ।
माया के मद में अंधे हुये लोग झूठ को सच मान बैठे हैं । और सच उन्हें दिखाई ही नहीं देता । नाम सिमरन के बिना ऐसे ही लोग अंत समय में यम के हाथों पड़ेंगे ।
जौ सुख को चाहे सदा सरनि राम की लेह । कह नानक सुन रे मना दुरलभ मानुख देह ।
जो कोई भी शाश्वत सत्य की चाह रखता है ।  उसे चाहिये कि सदगुरु की शरण पड़ कर राम नाम की मुहर लगवा कर अपने बेडा पार लगाए । इस मनुष्य जन्म को पाने के लिए देवता भी तरसते हैं । और हम इसे पाकर यूँ ही स्वासें खो रहे हैं ।
माया कारनि धावही मूरख लोग अजान । कह नानक बिन हरि भजन बिरथा जनम सिरान ।
ठगिनी माया के चक्कर में पड़ कर मुर्ख अपना जीवन व्यर्थ गवां रहे है । यह माया कभी किसी के काम नहीं आई । बल्कि इसने अच्छे अच्छे सिद्धों को भी अपने पथ से डिगा दिया । तो सामान्य जन का इस माया पर क्या जोर ?
जो प्रानी निसि दिन भजै रूप राम तिह जान । हरि जन हरि अंतर नही नानक साची मान ।
जो कोई भी प्रतिदिन नियम से हरी भजन करता है । वह दाता राम में ही रम जाता है । और उसका ही स्वरूप हो जाता है । ऐसे प्राणी में और हरी में फिर कोई अंतर नहीं रह जाता ।
शायद इसीलिए कबीर साहेब ने कहा है -
 लाली मेरे लाल की । जित देखूं तित लाल । लाली देखन मै गयी । मै भी हो गई लाल ।
सभी भावार्थ अशोक कुमार दिल्ली द्वारा । धन्यवाद अशोक जी 

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