08 मार्च 2012

और शुद्ध सम्भोग क्या है ?

विस्तार और चाहिए - दूषित पदार्थ जलने के बाद हवन कैसे होगा ? और शुद्ध सम्भोग क्या है ? कब इसकी संभावना और प्राप्ति होती है ? इस प्रकार का भोग जीव को सहज मार्ग से विचलित करने में कितने प्रतिशत प्रभावी है ? एक नियमित पाठक की टिप्पणी । लेख - YOGA AND SEX पर
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अद्वैत ज्ञान से जुङे होने के बाबजूद मैं प्रत्येक घटना और उसके विवरण को गौर से उसके उसी धरातल पर समझने की कोशिश करता हूँ । जबकि ऐसी बहुत सी बातों का अद्वैत में कोई महत्व ही नहीं है । पर शायद मैं इस बात का निमित्त हूँ कि - ज्ञान परम्परा में जो बात दूसरों ने नहीं कहीं । उसको घुमा दिया । या दवा दिया । उसके बारे में भी सार्थक चर्चा कर सकूँ ।
मेरे स्थायी पाठकों को पता होगा । सत्य पुरुष के पाँचवें अंश काल निरंजन ने गहन तपस्या कर त्रिलोकी सृष्टि की इच्छा की । तब सत्य पुरुष ने इसके पास अष्टांगी कन्या ( यानी सबसे पहली औरत ) भेजी । ये सर्वांग सुन्दर थी । और पूर्ण स्त्री थी । बाद में निरंजन उस पर आसक्त हो गया । और स्त्री पुरुष भोग का श्री गणेश यानी शुरूआत हुयी । ऐसा विवरण मिलता है ।
लेकिन अगर कुछ अन्य दुर्लभ विवरण पर गौर किया जाये । तो उस आधार पर ये विवरण घुमाया हुआ है । और जैसा कि सम्पूर्ण मानव जाति की सभी धर्म पुस्तकों के साथ किया गया । उनमें दिव्य आत्माओं का काम भाव पूर्णतया निकाल दिया है । या उसको श्रंगारिक भाव में बदल दिया । मगर तुलसीदास ने इतना कहने की हिम्मत तो दिखाई - कि मैं ऐसा नहीं

करूँगा । देखिये । रामचरित मानस बालकाण्ड में शंकर के विवाह बाद का वर्णन ।
जबहिं संभु कैलासहिं आए । सुर सब निज निज लोक सिधाए ।
जगत मातु पितु संभु भवानी । तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी । ???
जब शंकर कैलास पर्वत पर पहुँचे । तब सब देवता अपने अपने लोकों को चले गए ।  पार्वती और शिव जगत के माता पिता हैं । इसलिए मैं उनके श्रृंगार का वर्णन नहीं करता ?
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा । गनन्ह समेत बसहिं कैलासा ।
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ । एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ ।
शंकर पार्वती विविध प्रकार के भोग विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे । वे नित्य नए विहार करते थे । इस प्रकार बहुत समय बीत गया ।
अब फ़िर से ऊपर वाली बात पर आ जाईये । विवरण कहता है - अयोनिजा अष्टांगी स्वयं भी योनि अंग से रहित थी । तब निरंजन ने अपने नाखून से चीर कर इसकी योनि बना दी ? फ़िर दोनों परस्पर सहमति से रति क्रिया में तल्लीन हो गये । और उनके तीन पुत्र - बृह्मा विष्णु शंकर हुये । इस छोटे से उल्लेख ने मेरे दिमाग में हलचल पैदा कर दी । मेरा ध्यान तुरन्त दूसरे पक्ष पर गया - फ़िर निरंजन लिंग युक्त था ? या शिश्न रहित ? या तब शिश्न का निर्माण क्या सिर्फ़ मूत्र त्याग हेतु किया गया था ?

सृष्टि रहस्य के स्थूल यानी शरीर दृष्टिकोण से इसका उत्तर तलाशने में दिक्कत आती है । संशय भी है । पर योग के तकनीकी पक्ष में यह बिलकुल स्पष्ट समझ में आ जाता है ।
काल पुरुष - यानी समय का निर्माता या अधिकारी पुरुष । चेतन का वह रूप । जो निर्धारित समय सीमा की सृष्टि करने का अधिकारी है । और जिसके सहायक प्रकृति ( अष्टांगी ) और 3 गुण - सत ( विष्णु ) रज ( बृह्मा ) तम ( शंकर ) हैं ।
अष्टांगी - मूल प्रकृति । जो पाँच तत्वों की 25 प्रकार की है । 25 प्रकृतियों का विवरण पहले ही प्रकाशित है । 3 गुण - सत ( विष्णु ) रज ( बृह्मा ) तम ( शंकर ) हैं  ।
सृष्टि के इस तकनीकी पक्ष में ये सूत्र बिलकुल स्पष्ट ही है । चेतन पुरुष । काल रूप होकर ( यानी जीवन अवधि वाला ) स्त्री पुरुष जीव रूप में शरीर ( 5 तत्व  25 प्रकृति का = प्रकृति ) को धारण कर 3 गुणों से खेल रहा है ।
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दूषित पदार्थ जलने के बाद हवन कैसे होगा - किसी भी शुद्ध प्रभावी तेज के सम्पर्क में दूषित को जलना ही होता है

। इसके उदाहरण - बुद्ध - अंगुलिमाल । नारद - वाल्मीकि । बाबा भारती - खङग सिंह आदि बहुत लोग हुये हैं । दूषित पदार्थ जलने का मतलब है । बुरे संस्कार और तामसिक भाव । इसके बाद शुभ संस्कार और सात्विक गुण उदय होते हैं । या कहिये । तामसिक प्रभाव से दब गये थे । उभरने लगते हैं । इन शुभ भावों और सात्विक गुणों की तेज में आहुति ही हवन है ।
और शुद्ध सम्भोग क्या है - इसके बाद जीव ( आत्मा ) में प्रकटी दिव्यता और ज्ञान युक्त रमण ( जीवन ) से जो वह निष्काम कर्म भोग ( दिव्यता युक्त ) आदि करता है । वह शुद्ध सम्भोग है । भोगने में सम । न राग । न वैराग । बल्कि वीतराग । जो सबसे उत्तम अवस्था है ।
कब इसकी संभावना और प्राप्ति होती है - सात्विकता के उदय होते ही योग अभ्यास से ज्यों ज्यों इसके % में बढोत्तरी होती जाती है । बस प्राप्ति होने लगती है । 50% अनुपात होने पर दिव्य गुण प्रकट होने लगते हैं । फ़िर वह दिव्यात्मा ही हो जाता है । बस शुरूआती समर्पण और लगन आवश्यक है । यह आप में कितना % है । सब देर और शीघ्रता इसी पर निर्भर है ।


इस प्रकार का भोग जीव को सहज मार्ग से विचलित करने में कितने प्रतिशत प्रभावी है - इस पंक्ति का आशय में ठीक से समझ नहीं पाया । क्योंकि योग का भोग स्त्री पुरुष शरीर का काम भोग नहीं है । उस तरह की क्रिया भी नहीं हैं । ये विचार आकृतियों का आंतरिक संघर्ष जैसा है । जैसे सूर्य किरणें कोहरे ( अज्ञान ) को नष्ट कर देती हैं । और सूर्य दूर निर्लेप ही रहता है । सूर्य किरणें गन्दगी ( दूषित वासना ) को स्वच्छ कर देती हैं । और सूर्य निर्लेप ही रहता है आदि ।
- गाँधारी और दुर्योधन का प्रसंग । वेद व्यास और 3 रानियों का नियोग । कुन्ती द्वारा देवताओं से बच्चे पैदा करना । दौपदी का यज्ञ द्वारा पैदा होना । जिससे उसका नाम - याज्ञसेनी रखा गया आदि इसी तरह के ढेरों प्रसंग हैं । जिनमें शारीरिक क्रियायें नहीं थी ।
- एक कहानी और याद आती है । एक युवा साधु और एक वृद्ध साधु नदी पार कर रहे थे । वहाँ एक जवान युवती भी

नदी पार करने की प्रतीक्षा में खङी थी । लेकिन नदी भयंकर रूप से उफ़न रही थी । और चढी हुयी थी । पार करने का कोई चारा न था । कोई उपाय न था ।
उसने दोनों साधुओं से उसको भी नदी पार करा देने का आगृह किया । जिसके लिये वृद्ध साधु ने साफ़ मना कर दिया । क्योंकि उसकी दृष्टि में औरत को छूना तो दूर । देखना भी पाप था । लेकिन युवा साधु ने ऐसा नहीं किया । उसने युवती को कन्धों पर बैठा लिया । और आसानी से पार करा दिया । युवती धन्यवाद कर चली गयी । लेकिन बूढे साधु के तेवर चढे हुये थे । वह बार बार युवा सन्यासी को धिक्कार भेज रहा था । उफ़ ! घोर नरक का इंतजाम कर लिया । एक स्त्री को छुआ । उसे कन्धों पर बैठाया । बहुत दूर रास्ते तक वह ऐसा ही कहता रहा । तव युवा झल्लाकर बोला - बाबा ! मैं तो उसे कन्धे से उतार कर कबका भूल भी गया । पर लगता है । वह आपके कन्धे पर अब भी बैठी हुयी है ।

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