01 मार्च 2012

भूतिया बचपन

1980 मेरी उमृ बस दस से कुछ ज्यादा । ये बङी मजेदार बात है कि सिर्फ़ 10 साल बाद यानी 1990 में ही पैदा हुये बच्चे सिर्फ़ एक दशक पीछे के रोमांचकारी जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते । क्योंकि इन्हीं वर्षों में भारत में टेलीविजन आ चुका था । दूसरी भौतिक सुविधाओं में भी धीरे धीरे ही सही बढोतरी होने लगी थी । बोरिंग प्रायमरी पाठशालाओं की जगह सरस्वती शिशु मन्दिर और अन्य आधुनिक स्कूलों की श्रंखला धीरे धीरे विस्तार ले रही थी । और उनमें प्रवेश पाये बच्चे परम्परागत भारतीय गंवारूपन से अलग हो गये थे ।
लेकिन मेरा बचपन ऐसा नहीं था । इस्लामियाँ स्कूल । जो मेरे घर से पाँचवे घर में ही था । और लगभग गाँव के ( बहुत ) बङे कच्चे मकानों जैसा था । उसी में एक बूढे से प्रधानाचार्य डम्बर सिंह लोधे राजपूत अपने लङका बहू के साथ रहते भी थे । और स्कूल के साथ साथ उनका नहाना धोना खाना हगना आदि कर्म भी कुशलता से चलता रहता था । बहू ने किसी छात्र से कहलवाया - खाना बन गया । और मास्साब लिखाई पढाई वहीं छोङकर खाना खाने चले गये । दूसरा बस एक और शिक्षक था । जो गाँव से आता था । वह बच्चों को किटकिन्ना ( अ आ इ ई ) लिखने का आदेश बताकर अपने बाजार आदि के काम

निपटाने चला जाता । और कभी कभी छुट्टी के समय आता । या कभी सीधा वहीं से घर चला जाता । उधर हमारे बूढे प्रिंसीपल साहब को अक्सर खाना खाकर औंघ ( नींद ) आ जाती । और वो स्कूल के बरगद के नीचे ही खाट बिछाकर विश्राम करने लगते ।
ये भारत महान का महान रहस्य ही है कि आक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी वाले शोध करते करते पागल हो जायें । पर उन्हें ये रहस्य कभी पता नहीं चलेगा कि ऐसे उच्चतम स्कूल से शिक्षा प्राप्त कर राजीव बाबा जैसे महा ज्ञानी कैसे निर्मित हो जाते हैं ?
खैर.. ऐसे फ़्री स्टायल स्कूल के फ़्री स्टायल बच्चे मेरे बचपन के दोस्त थे । और उन्होंने मेरे चरित्र निर्माण में भरपूर योगदान किया । बङे स्पेशल बच्चे थे । भूतों की बातें । गन्दी बातें । गुल्ली डण्डा । गोली कंचा । नक्क दूआ ( मुट्ठी में अण्डी या कंचों को छिपाकर उनकी गिनती पूछने का बाल जुआ ।) बीङी  में फ़ूंक मारना ( जो अपने बाबा दादा की चुरा लाते थे ) आदि ( अ ) सामाजिक कार्यों में बङे निपुण बङे ही प्रतिभाशाली थे ।
मास्टर साहब सोने लगते । तो छात्र भी इधर उधर खिसक लेते । और फ़िर असली शिक्षण । बल्कि कहिये

प्रशिक्षण शुरू होता । इन ज्ञानियों के प्रशिक्षण की बाकी बातें फ़िर कभी । फ़िलहाल भूतिया बातें करने का ही मौसम है । 8 से 11 साल के इन बच्चों में कोई भी ऐसा न था । जिसने अक्सर ही भूत न देखा हो । सिर्फ़ मेरा ही ये सौभाग्य न था कि जो मैं कोई भूत देखता । क्योंकि जैसे भूत का वे वर्णन करते थे । वैसा तो मैंने क्या । आज तक शायद किसी ने न देखा हो । बल्कि किसी भूत ने भी वैसा भूत न देखा होगा । वह भी एक बार सोचता । ये कौन से नये भूत हैं ? सब ही भूत से साक्षात हुये थे । कभी वे भूत से डर गये थे । कभी भूत ने उन्हें लड्डू आदि भी खिलाया था ।
अक्सर सभी फ़टी नेकर वाले बच्चे । उसमें झांकती चूँ चूँ चिङिया के साथ । किसी एकान्त स्थान का चयन करते । और फ़िर भूत आदि बातों का सिलसिला शुरू हो जाता । मजे की बात थी कि कई बार प्रेत छायायें देखने के बाबजूद मुझे उस वक्त ये ही पता नहीं था कि मैं भूत देख चुका हूँ । क्योंकि मुझे वो कभी भूत लगते ही नहीं थे । और इसके उलट उन्होंने मेरे बाल मन में भूतों की कई खास छवियाँ बना दी थी । उसके दांत बङे थे । नाखून बङे थे । वो अचानक सुअर आदि जानवर में बदल  गया । हवा में उङ गया । किसी के घर में ही रहता था । किसी भूत ने उसकी अईया ( दादी ) की गरदन ही दबा दी होती । कोई 


भूत रोटी गुझिया आदि चुरा ले गया । ऐसी ही दिलचस्प महफ़िल में अचानक कोई अन्य बच्चा आ जाता । उसने भी भूत अवश्य देखा था । उनमें सिर्फ़ मैं ही अकेला ऐसा डरपोक गाबदू था । जिसने वैसा ? क्या कोई भूत ही न देखा था । और न ही मैं उनकी तरह से इतनी तेज कल्पना भी कर पाता ।
सच कह रहा हूँ । मुझे रामसे बृदर्स । रामगोपाल वर्मा । हारर हालीवुड निर्माताओं आदि की अक्ल पर तरस आता है । उनकी योग्यता इस मामले में मेरे बाल दोस्तों के बराबर कुछ भी नहीं है । अपने इन्ही महान दोस्तों की प्रेरणा से मैंने अज्ञात अदृश्य भूत की खोज शुरू की । जो हड्डियों का कंकाल जैसा हो । जिसकी हाथ भर लम्बी जीभ हो । जो जीवित चिङिया खा रहा हो । काले कपङे पहने हो । सब तरह की वीभत्स विकृत कल्पना का साकार रूप हो आदि आदि । और बङा अफ़सोस है । मेरी वो खोज आज तक पूरी न हुयी । और 


मेरे भूतकाल की । वे महान आत्मायें । मेरे बचपन के दोस्त । इस छोटी सी गोल दुनियाँ में जाने कहाँ विलीन हो गये ।
लेकिन इन दोस्तों से मुझे एक बङा फ़ायदा हुआ । उन अति सयाने अनुभवियों के आगे भले ही मेरी दाल न गलती हो । पर अपने घर के सीधे साधे बच्चों ( खानदानी बहन भाई अन्य आदि ) में मेरा रुतबा उन्हीं की बदौलत कायम था । जैसा कि मैंने ऊपर कहा । 1980 तक बङा सादा सा ही जीवन था । अमेरिका के राष्ट्रपति BUSH उन दिनों लगभग बेरोजगार जैसे थे । और कामचलाऊ BUSH रेडियो बनाते थे । सिर्फ़ यही मनोरंजन का एकमात्र साधन था । एक कोई दूसरे यही काम करने वाले " मरफ़ी " भी थे । ये वो समय था कि मरफ़ी बच्चा ( विज्ञापन मरफ़ी ) भी आश्चर्यचकित अंदाज में इस तरह अपनी उंगली गाल पर लगाये रहता कि - आखिर इस डिब्बे में से आदमी कैसे बोल रहा है ?
पर मुझे उससे मतलब नहीं था । उस समय बिजली घर में होना ही बङी प्रतिष्ठा की बात थी । तब अंधेरा घिरी शाम का समय या तो कमरे में हुल्लङ करते हुये । या फ़िर घर के पास सङक पर खेलते हुये जाता । फ़िर ऐसे ही समय में मेरे दोस्तों का वो दुर्लभ ज्ञान काम आता ।
- दादा ( या भईया ) भूत की कहानी सुनाओ । छोटे बच्चे ( उमृ 3 से 7 लगभग ) शाम के अंधेरे में कहते ।
अब बताओ । हउआ । बिल्ली से डरने वाले बच्चों को भूत की कहानी सुनाने की कोई तुक है । पर वे खुद ही नहीं मानते थे । तब मैं क्या करता ? और इसी  पर मेरा  रुतबा ( उन बच्चों में ) भी कायम था ।
- फ़्फ़िर एक भ्भूतऽऽ आयाऽऽ । मेरी कहानी स्पेशल साउंड इफ़ेक्ट के साथ शुरू होती - उसने आवाज निकाली ..खे खे..खी खी खी खी खींऊँ हू हा हा हा ।
बस कहानी में एक ही लाइन होती थी । कोई बच्चा लङका लङकी अकेले में किसी नदी रास्ते आदि स्थान पर था । और उसे भूत ने घेर लिया । बस इसके बाद टोटल स्पेशल साउंड इफ़ेक्ट । भूत ये बोला । वो बोला । उसने ये किया । वो किया । सहमते । भयभीत होते । बगलोल सा मुँह बनाये बच्चों के भूत शब्द आते ही डर के मारे रोंगटे खङे हो 


जाते । कई बार तो सू सू भी निकल जाती । कहानी सुनते सुनते आपस में चिपक जाते । एक दूसरे को पकङ लेते । अभी कहानी  इंटरवल पर भी नहीं पहुँचती । आधे तो ममम्मी कहते हुये भाग जाते ।
कभी भी चली जाने वाली लाइट कहानी में सोने पर सुहागा का काम करती । और कहानी के मध्य अचानक अंधेरा होते ही बच्चों में चीख पुकार मच जाती । मम्मी मम्मी की पुकार ऐसे मचती । जैसे वास्तव में ड्रेकुला आ गया हो । फ़िर मेरी पिटाई लगने के चांस बन जाते - कहाँ से सीख कर आता है ये बातें ?
लेकिन मेरे अभिन्न श्रोता और मैं दोनों ही सुनने सुनाने की आदत से मजबूर थे । डांट डपट के बाद फ़िर महफ़िल जम जाती । और इसका निश्चित परिणाम ये होता था कि रात में उन्हें सपने भी भूतिया ही आते थे । और किसी को टायलेट के लिये मम्मी को जगाने या बाथरूम जाने की आवश्यकता ही नहीं थी । वहीं निपट जाते थे । और फ़िर सुबह पिटाई ।
- आगे और भी लिखना चाहता था । पर कुछ व्यवधान आ गया । चलिये फ़िर कभी सही ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326