15 जनवरी 2012

अब बताईये । गुरु बनायें तो किसे ?

राजीव जी को बारम्बार नमस्कार । आपके ब्लॉग में कबीर - वाणी पढ़ने को मिली । अच्छा लगा । निश्चय ही कबीर जी ने गुरु की अनिवार्यता बताई है । जिसके बिना मानव का कोई ठौर-ठिकाना नहीं । साथ ही उनके कुछेक दोहे ( साखियाँ ) ऐसी भी पढ़ने को मिली । जिनमें गुरु की पहचान किये बिना ही उसका पिछलग्गू होने के खतरे गिनाये गए हैं । उदाहरण के लिए कुछ यहाँ लिख रहा हूँ -
बंधे को बंधा मिला । छूटे कौन उपाय । अन्धे को अंधा मिला । मारग कौन बताय ।
जानीता बूझा नहीं । बूझि किया नहीं गौन । अन्धे को अंधा मिला । पड़ा काल के फंद ।
गुरु लोभी शिष लालची । दोनों खेले दाव । दोनों बूडे बापुरे । चढ़ पाथर की नाव ।
अब बताईये । गुरु बनायें तो किसे ? वैसे आज के युग में तो लोहे के जहाज भी तैरते हैं । कबीर जी के युग में पत्थर की नाव डूब जाती होगी । इसलिए उन्होंने ऐसा कहा । कृपया मार्गदर्शन करें कि गुरु की क्या परीक्षा लेकर फिर उसे गुरु माना जावे । आपका ही । कृष्ण मुरारी कोटा ।
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तिल गुड खाओ । मीठे बचन सुनाओ । इस ब्लॉग के पाठकों का दिल मीठा बनाओ । Happy Makar Sankranti - Dr S K Keshari
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कल रविवार को पूरे दिन नेट कनेक्टिविटी फ़ेल रही । आज अभी 8:30 से कनेक्ट हुआ । आगरा में बिजली के कारण सङक पर आन्दोलन तक हो रहा है । इस हेतु सभी कार्यों में बाधा आ रही है ।
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सात दीप नव खण्ड में सतगुरु फ़ेंकी डोर । ता पर हँसा ना चढे तो सतगुरु की क्या खोर । कबीर के सभी दोहों की तरह यह दोहा भी खासा रहस्यमय है । सात दीप नव खण्ड यानी इस शरीर में सतगुरु शिष्य के लिये डोर डाल देते है । अब शिष्य को ध्वनि नाम रूपी इस डोर पर चढकर मंजिल यानी धुर तक पहुँचना होता है ।
वास्तव में कबीर के इसी दोहे में आपका पूर्ण उत्तर छिपा हुआ है । सतगुरु की सबसे बङी पहचान यही है कि वह आपकी स्वांस यानी चेतनधारा में गूँजते

नाम को प्रकट कर देते हैं । और साधक की स्थिति अनुसार ये नाम उसको ऊपर ले जाता है । ये पहचान सतगुरु की हुयी कि - वह निर्वाणी ध्वनि रूपी नाम ( झींगुर की आवाज जैसी ध्वनि ) को सिर के अन्दर मध्य में प्रकट कर देते हैं । इस नाम को प्रकट करने की क्षमता सिर्फ़ सदगुरु की है । ध्यान रहे । सिर के अन्दर मध्य में प्रकट झींगुर जैसी महीन झंकार ।
लेकिन इसमें भी एक रहस्य है । ठीक ऐसी ही मगर तेज और मोटी आवाज में झंकार सिर के दाँये या बाँये या एकदम कान के आसपास सुनाई देती है । यह काल की आवाज है । जो गुरु या किसी सिद्ध के सानिध्य में होने की पहचान है ।
इसी आबाज का एक और रहस्य है । और खास तौर पर जापान में तो यह आम बात है । यह मस्तिष्क और कान की विभिन्न बीमारियों में भी बिलकुल

ऐसी ही झींगुर जैसी झंकार सिर के आंतरिक भाग में स्पष्ट सुनाई देती है । पर यह न गुरु न सिद्ध और न ही सदगुरु के द्वारा प्रकट है । बल्कि यह बीमारी है । इन सब आवाजों में अंतर होता है । जिसे कोई अनुभवी ही बता सकता है ।
इसी आवाज का एक और रहस्य है । काल और उसकी बीबी मायावती भाभी ने सतनाम के साधकों को भृमित करने हेतु झाँझरी आदि दीपों की रचना कर जगह जगह ऐसे मिथ्या मायावी संगीत का जादू फ़ैला दिया । ताकि ज्ञान की शरण में आया जीव भृमित हो जाये । लेकिन जो वास्तविक सतगुरु की शरण में होता है । उस पर ये जादू बेअसर रहता है । ये खासतौर पर मैंने आपको सतगुरु की पहचान बताई । क्योंकि गुरु में पारबृह्म तक ले जाने की क्षमता नहीं होती । भले ही वह आत्मज्ञान या हँसज्ञान का ही हो ।

मैंने पहले भी कहा है । परमहँस दीक्षा वाले साधक सिर्फ़ हमारे यहाँ हैं । अन्य कहीं परमहँस दीक्षा नहीं होती । अब चाइना माल की तरह नकली और घटिया चलन चलाने वाले साधुओं में भी होते हैं । पर वे दो मिनट में पता चल जाते हैं कि हँस हैं या कौवा है ? फ़िर परमहँस की तो बात ही जाने दें । मैंने पहले भी कहा है । परमहँस दीक्षा साधक के शरीर से निकलने की स्थिति बनने लगे । तब दी जाती है । हँस ज्ञान देने वाला गुरु होता है । दशरथ पुत्र राम का हँस ज्ञान था । और श्रीकृष्ण का परमहँस ।
अब आईये । गुरु की बात करते हैं । सतगुरु 1 समय में सिर्फ़ 1 होता है । जबकि ठीक उसी समय में गुरु लाखों हो सकते हैं । हजारों तो प्रायः हर समय ही बने रहते हैं । ये मैं वास्तविक अंतर ज्ञानियों की बात कर रहा हूँ । न कि परम्परा नियम के तहत बने गद्दीधारी गुरुओं की । और न ही रामायण महाभारत गीता या अन्य धा्र्मिक पोथियों की कथा बाँचने वाले रटन्तू तोतों की ।
दुनियाँ में तन्त्र मन्त्र या किसी भी प्रकार का अलौकिक ज्ञान हो । उसका मुख्य आधार सिर्फ़ 1 ही है । कुण्डलिनी जागरण । केवल इसी कुण्डलिनी ज्ञान के विस्तार में अनेकों स्तर के लाखों गुरु तक हो सकते हैं । और उनकी एकमात्र पहचान यही है । जो भी प्रयोग साधना वो करायें । उनसे स्पष्ट अलौकिक अनुभव होना ।
आत्मज्ञान के सबसे उच्चतम सहज योग या राज योग का पहला चरण होता है । आत्मा की जङ चेतन से जुङी 


गाँठ को काट देना । और दूसरा उसका तीसरा नेत्र खोल देना । इस तरह अब तक जन्म जन्म से अज्ञान की जंजीरों में जकङा हँस आत्मा बृह्माण्ड की यात्रा करता है । और सुदूर लोकों को देखता है ।
अब सबसे मुख्य बात - अक्सर जिज्ञासु इस तरह के प्रश्न तो पूछते रहते हैं । पर दो खास बिन्दुओं की तरफ़ उनका ध्यान नहीं जाता । ये तीनों पूर्ण होने चाहिये । 1 पूर्ण गुरु । 2 पूर्ण ज्ञान ( यानी शिष्य को पूरी थ्योरी पता हो ) 3 पूर्ण शिष्य । तभी सही सफ़लता मिलती है । ये बात जीवन के हर क्षेत्र में भी लागू होती है । बस सिर्फ़ आपको गौर करना होगा ।
अब महत्वपूर्ण ये है कि लोग मुझसे पूर्ण गुरु के विषय में तो पूछते हैं । लेकिन अपने ही दो खास बिन्दुओं से कन्नी काट जाते हैं । और ये बात हमारी दीक्षा ( ले चुके ) वालों पर भी लागू होती है 


। जरा सोचिये । तमाम पाठकों ने लिखित स्वीकारा है - राजीव जी ! आपके सिवाय हमें ऐसा कोई दिखाई नहीं देता । जो हमारे प्रश्नों का उत्तर दे सके । शंकाओं का समाधान कर सके । और मैंने उन्हें उत्तर दिये । बल्कि ये कहना अधिक उचित है । वे प्रश्न भी मैंने ही दिये । वरना उस स्तर के प्रश्न आप सोच ही नहीं सकते थे ।
अब दूसरी बात है । क्या आपको राजीव का विकल्प दिखाई देता है ? सिर्फ़ 1 । सिर्फ़ 1 । मुझे बताईये । बल्कि मिलाईये । मैं आपका बहुत आभारी होऊँगा । मैंने यह बात खुद ही कही है । जो और जैसा और जिस तरह । मैं बता रहा हूँ । आप इतिहास में से भी इसका सिर्फ़ 1 सिर्फ़ 1 ही उदाहरण खोजकर बताईये । ध्यान रहे । जैसी बारीक व्याख्या मैं करना चाहता हूँ । अभी 10% भी नहीं कर पाया । समय के साथ साथ करता जाऊँगा ।


ये था - 1 पूर्ण गुरु वाला स्पष्टीकरण । अब मान लीजिये । आप निरुत्तर हो गये । शून्यवत 0 हो गये । समर्पित हो गये । ज्ञान लेने के इच्छुक हो गये । या ले भी लिया । अब विशेष गहराई से सोचें । 2 पूर्ण ज्ञान ( यानी शिष्य को पूरी थ्योरी पता हो ) 3 पूर्ण शिष्य ? क्या आप अपने ही इन दो बिन्दुओं को पूरा कर पायेंगे । या हमारे मण्डल के तमाम शिष्य इसको पूरा कर रहे हैं ? राजीव जी की तरह पूरी सृष्टि में घूमने की जल्दी सबको है । अप्सराओं यक्षणियों से मेल मिलाप की भी भारी चाह है । पर राजीव जी की 3rd eye खुलने के साथ साथ जो शिष्यता में 3rd डिग्री की मार पङी । उस पर किसी का ध्यान शायद नहीं जाता । मैंने बताया भी 


है । कोल्हू में डालकर पेरा गया है मुझे । सब कुछ तो लिख दिया । तब आज मैं खुद को शिष्य कह पाता हूँ । पूर्ण शिष्य फ़िर भी नहीं ।
शर्मा जी वैसे मेरे 10 ब्लाग्स पर आपके प्रश्न का उत्तर पहले से भी मौजूद है । फ़िर भी आगे इसी विषय पर और भी लिखूँगा । आपके दूसरे प्रश्न का उत्तर भी जल्द ही दूँगा । इस लेख में आपकी जिज्ञासा दूर करने के साथ साथ हमारे मण्डल के लोगों को भी उत्तर दिया है ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326