26 अक्तूबर 2011

कामवासना सामाजिक घटना नहीं है

तंत्र सूत्र विधि 26 अचानक रूकने की कुछ विधियां । दूसरी विधि ।
जब कोई कामना उठे । उसे पर विमर्श करो । फिर - अचानक उसे छोड़ दो । यह पहली विधि का ही दूसरा आयाम है । जब कोई कामना उठे । उस पर विमर्श करो । अचानक, उसे छोड़ दो । तुम्हें कोई इच्छा होती है । चाहे वह कामवासना हो । चाहे प्रेम की इच्छा हो । चाहे भोजन की इच्छा हो । तुम्हें इच्छा होती है । तो उस पर विमर्श करो । जब यह सूत्र कहता है कि - विमर्श करो । तो उसका मतलब होता है कि उसके पक्ष या विपक्ष में विचार मत करो । बल्कि देखो कि - वह इच्छा क्या है ? मन में कामवासना पैदा होती है । और तुम कहते हो कि यह बुरी है । यह विमर्श करना नहीं हुआ । तुम्हें सिखाया गया है कि कामवासना बुरी है । इसीलिए उसे बुरा कहना विमर्श नहीं है । तुम शास्त्रों से पूछ रहे हो । तुम अतीत से पूछ रहे हो । तुम गुरूओ और ऋषियों से पूछ रहे हो । तुम स्वयं कामना पर विमर्श नहीं कर रहे हो । तुम किसी और चीज पर विमर्श कर रहे हो । हो सकता है । वह तुम्हारा संस्कार हो । तुम्हारे पालन पोषण की शैली हो । तुम्हारी शिक्षा हो । तुम्हारी संस्कृति हो । तुम्हारा धर्म हो । तुम उन पर विचार कर रहे हो । कामना पर विमर्श नहीं । यह सीधी सी चाह पैदा हुई है । इसमे मन को मत बीच में लाओ । अतीत को शिक्षा को । संस्कार को मत बीच में लाओ । केवल इस चाह पर विमर्श करो कि - यह क्या है ? अगर वह सब तुम्हारी खोपड़ी से बिलकुल पोंछ दिया जाए । जो तुम्हें समाज से, मां बाप से, शिक्षा और संस्कृति से मिला है । अगर तुम्हारा मन पोंछकर अलग कर दिया जाए । तो भी कामवासना पैदा होगी । क्योंकि वह वासना तुम्हें समाज से नहीं मिलती है । वह वासना जैविक है। तुम में बिल्ट है । वह तुममें ही है । उदाहरण के लिए 1 नवजात शिशु को लो । यदि उसे कोई भाषा न सिखायी जाए । तो वह भाषा नहीं जानेगा । भाषा के बिना रहेगा । भाषा 1 सामाजिक घटना है । वह सिखायी जाती है । लेकिन जब ठीक समय आएगा । तो इस बच्चे को भी कामवासना उठेगी । कामवासना सामाजिक घटना नहीं है । वह जैविक रूप से बिल्ट है । सही और प्रौढ़ क्षण आने पर वह पैदा होगी । वह आएगी । वह सामाजिक नहीं है । जैविक है । और गहरी है । वह तुम्हारी कोशिकाओं में ही बिल्ट इन है । तुम्हारा जन्म कामवासना से हुआ है । इसलिए तुम्हारे शरीर की प्रत्येक कोशिका काम कोशिका है । तुम काम कोशिकाओं से बने हो । जब तुम तुम्हारी बायोलाजी पूरी तरह न मिटा दी जाए । तब तक कामवासना रहेगी । वह आएगी ही । क्योंकि वह है ही । कामवासना बच्चे के जन्म के साथ साथ आती है । क्योंकि बच्चा मैथुन की उप-उत्पत्ति है । वह कामवासना से ही पैदा हुआ है । उसका समूचा शरीर काम कोशिकाओं से बना है । वासना मौजूद है । सिर्फ समय की जरूरत है । जब उसका शरीर प्रौढ़ होगा । तो वासना आएगी । और वह उसमें जाएगा । चाहे कोई तुम्हें सिखाये । या न सिखाये । या तुम्हें लाख कहे कि - कामवासना बुरी चीज है । वह अच्छी नहीं है । वह पाप है । वह नरक में ले जाती है । या वह ये है ? या वो है ? कामवासना सदा मौजूद रहती है । पुरानी परंपराएं पुराने धर्म खासकर ईसाईयत कामवासना के खिलाफ थी । वह उसके खिलाफ जोरदार प्रचार कर रही थी । यिप्पी या हिप्पी और अन्य संप्रदाय इसके विपरीत आंदोलन चला रहे हैं । वे कहते है कि - कामवासना शुभ है कि कामवासना में परम सुख है । वे कहते है कि संसार में कामवासना ही असली चीज है । उसे अशुभ कहो । या शुभ । दोनों ही सिखावन हैं । किसी सिखावन के मुताबिक अपनी चाह का विचार मत करो । कामना पर, उसकी शुद्धि में, वह जैसी है । 1 तथ्य की तरह विमर्श करो । उसकी व्याख्या मत करो । यहां विमर्श का मतलब व्याख्या नहीं है । तथ्य को तथ्य की तरह देखना है । चाह है । उसे सीधा और प्रत्यक्ष देखो । विचारों और धारणाओं को बीच में मत लो । कोई विचार तुम्हारा नहीं है । कोई धारणा तुम्हारी नहीं है । हर चीज तुम्हें दी गई है । हर धारणा उधार है । कोई विचार मौलिक नहीं है । कोई विचार मौलिक नहीं हो सकता । इसलिए विचार को बीच में मत लो । सिर्फ कामना को देखो कि - वह क्या है ? ऐसे देखो जैसे कि तुम्हें उसके संबंध में कुछ भी पता नहीं है । उसका साक्षात्कार करो । विमर्श का अर्थ यही है ।
जब कोई कामना उठे । उस पर विमर्श करो । उसे तथ्य की तरह देखा । देखो कि - यह क्या है ? दुर्भाग्य से यह सर्वाधिक कठिन कामों में से 1 है । इसके मुकाबले चाँद पर जाना कठिन नहीं है । गौरी शंकर पर पहुंचना कठिन नहीं है । चाँद पर पहुंचना बहुत जटिल है । अत्यंत जटिल । लेकिन आंतरिक मन के किसी तथ्य के साथ जीने की बात के सामने चाँद पर पहुंचना कुछ भी नहीं है । क्योंकि तुम जो भी करते हो । उसमें मन बहुत सूक्ष्म रूप से संलग्न रहता है । मन उसमें सदा समाया रहता है । उलझा रहता है । इस शब्द को देखो । ज्यों ही मैंने
कहां कि कामवासना या संभोग कि तुम तुरंत उसके पक्ष या विपक्ष में कुछ निर्णय लेते हो । जिस क्षण मैंने कहां संभोग कि तुमने व्याख्या कर ली । तुम कहते हो - यह भला है । या वह बुरा है । तुम शब्द की भी व्याख्या कर लेते हो । जब " संभोग से समाधि की और " पुस्तक प्रकाशित हुई । तो बहुत से लोग मेरे पास आए । उन्होंने कहा कि कृपा कर यह नाम " संभोग से समाधि की और " बदल दीजिए । संभोग शब्द से उन्हें घबड़ाहट होती है । उन्होंने किताब भी नहीं पढ़ी । और वे भी नाम बदलने को कहते है । जिन्होंने किताब नहीं पढ़ी । वे भी क्यों ? यह शब्द ही तुम्हारे भीतर व्याख्या को जन्म देता है । मन ऐसा व्याख्याकार है कि अगर मैंने कहा कि नींबू का रस तो तुम्हारी लार टपकने लगती है । तुमने शब्दों की व्याख्या कर ली । नींबू का रस । इन शब्दों में नींबू जैसी कोई चीज नहीं है । लेकिन तुम्हारे मुंह में खट्टापन भर जायेगा । मन ने व्याख्या कर ली । मन बीच में आ गया । फिर अचानक, उसे छोड़ दो । इस विधि के 2 हिस्से हैं । पहला कि तथ्य के साथ रहो । जो हो रहा है । उसके प्रति सजग रहो । अवधान पूर्ण रहो । देखो कि जब कामवासना पकड़ती है । तो तुम्हारे भीतर क्या क्या घटित होता है । तुम्हारा शरीर ज्वर ग्रस्त हो जाता है । कांपने लगता है । तुम्हें लगता है कि तुम किसी से आविष्ट हो । इसका अनुभव करो । इस पर विमर्श करो । कोई निर्णय न लो । सीधे तथ्य में प्रवेश करो । यह मत कहो कि - यह बुरा है । अगर बुरा कहा । तो विमर्श समाप्त हो गया । तुमने द्वार बंद कर दिया । अब कामवासना की और तुम्हारी पीठ है । मुंह नहीं । तुम उससे दूर सरक गए । ऐसे तुमने 1 गहरा और कीमती क्षण गंवा दिया । जिसमें तुम अपने जीवन की 1 जैविक पर्त का दर्शन कर सकते थे । तुम अभी जिस पर्त से परिचित हो । वह सामाजिक पर्त है । और तुम उससे ही चिपके हो । वह सतही है ।
कामवासना तुम्हारे शास्त्रों से गहरी है । क्योंकि वह जैविक है । अगर सभी शास्त्र नष्ट कर दिए जाएं । ऐसा हो सकता है । ऐसा कई बार हुआ है । तो तुम्हारी व्याख्या खो जाएगी । लेकिन कामवासना तब भी रहेगी । वह ज्यादा गहरी है । सतही चीजों को बीच में मत लाओ । तथ्य पर अवधान दो । उसमे प्रवेश करो । और देखो कि तुम्हें क्या हो रहा है । किसी ऋषि विशेष को, मोहम्मद को, महावीर को क्या हुआ । वह प्रासंगिक नहीं है । इस क्षण तुम्हें क्या हो रहा है । इस जीवंत क्षण में जो हो रहा है । वह प्रासंगिक है । उस पर विमर्श करो । उसका ही निरीक्षण करो ।
और अब दूसरा हिस्सा । यह सचमुच अदभुत है । शिव कहते हैं - फिर, अचानक छोड़ दो । यहां " अचानक " को याद रखो । यह मत कहो कि यह खराब है । इसलिए छोड़ रहा हूं । यह मत कहो कि यह खराब है । इसलिए इसे नहीं रखूंगा । यह मत कहो कि यह बुरा है । यह पाप है । इसलिए इसके साथ गति नहीं करूंगा । मैं इसे त्याग दूँगा । मैं इसका दमन कर दूँगा । तब तो दमन घटित होगा । ध्यान नहीं । और दमन अपने ही हाथों अपना 1 भ्रमित चित निर्मित करना है । दमन मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है । उसके द्वारा तुम समूचे यंत्र को उपद्रव में डाल रहे हो । उन ऊर्जाओं को दबा रहे हो । जो किसी ने किसी दिन फ़ूट कर बाहर आएँगी । ऊर्जा तो है ही । सिर्फ दमित हो गई है । न इसे बाहर जाने दिया गया है । और न भीतर । उसे सिर्फ दमित कर दिया गया है । वह कोने कातर में छिप गई है । जहां वह पड़ी रहेगी । और विकृत होगी । और स्मरण रहे - विकृत ऊर्जा ही मनुष्य की बुनियादी समस्या है । जो मानसिक रूग्णताएं हैं । वे विकृत ऊर्जा की उप-उत्पत्ति हैं । तब वह ऊर्जा ऐसे ढंगों में अभिव्यक्त होगी । जिसकी कोई कल्पना नहीं हो सकती है । और इन विकृतियां में भी वह फिर अपने को अभिव्यक्त करने की चेष्टा करेगी । और जब वह विकृत रूप में अभिव्यक्ति होती है । तो बहुत दुःख और संताप लाती है । विकृत ऊर्जा की अभिव्यक्ति से संतुष्टि नहीं मिलती है । और अड़चन यह है कि तुम विकृत नहीं रह सकते । तुम्हें विकृति को अभिव्यक्ति देना होगी । दमन विकृति पैदा करता है । इस सूत्र का दमन से कुछ लेना देना नहीं है । यह सूत्र यह नहीं कहता कि - नियंत्रण करो । यह सूत्र दमन की बात ही नहीं करता है । यह सूत्र कहता है - अचानक, छोड़ दो । तो क्या किया जाए ? कामना है । कामना पर तुमने विमर्श किया है । अगर कामना पर तुमने विमर्श किया है । तो दूसरा भाग कठिन नहीं होगा । तब यह आसान होगा । यदि विमर्श नहीं किया है । तो तुम्हारे मन में विचार चलते रहेंगे । मन कहेगा - यह अच्छा है कि कामवासना को हम अचानक छोड़ दें ।
तुम छोड़ना चाहोगे । लेकिन यह सवाल नहीं है । यह पसंद तुम्हारी न होकर समाज की हो सकती है । यह पसंद तुम्हारा विमर्श न होकर मात्र परंपरा हो सकती है । इसलिए विमर्श करो । पसंद या गैर पसंद की बात मत उठाओ । केवल विमर्श करो । और तब तुम्हारा हिस्सा आसान हो जाएगा । तब तुम कामना को छोड़ सकते हो । कैसे छोड़ सकते हो । जब किसी चीज पर तुम ने समग्र रूपेण विमर्श किया है । तो उसे छोड़ना बहुत आसान हो जाता है । वह इतना ही आसान है । जितना मेरे लिए इस कागज़ हो गिराना । इसे छोड़ दो । क्या होगा ? कामना है । उसे तुमने दबाया नहीं है । कामना है । और वह बाहर जाना चाहती है । वह उठ रही है । और तुम्हारे पूरे अस्तित्व को उद्वेलित कर दिया है ।
सच तो यह है कि जब तुम किसी कामना पर बिना किसी व्याख्या के विचार करोगे । तो तुम्हारा पूरा अस्तित्व ही कामना बन जाएगा । समझो कि कामवासना है । और तुम उसके पक्ष या विपक्ष में नहीं हो । उसके संबंध में तुम्हारी कोई धारणा नहीं है । तुम सिर्फ उसे देख रहे हो । तो इस देखने भर से तुम्हारा पूरा अस्तित्व उस कामना में संलग्न हो जाएगा । 1 अकेली कामवासना आग की लपट बन जाएगी । उसमें तुम्हारा अस्तित्व जलने लगेगा । मानो कि तुम समग्र रूपेण कामुक हो उठे हो । तब कामवासना काम केंद्र पर ही सीमित नहीं रहेगी । वह तुम्हारे पूरे शरीर पर फैल जाएगी । तुम्हारे शरीर का 1-1 तंतु कांपने लगेगा । कामना अंगारा बन जाएगी । तब उसे छोड़ दो । उससे अचानक हट जाओ । उससे लड़ों मत । इतना ही कहो कि - मैं छोड़ता हूं । तब क्या होगा । ज्यों ही तुम कहते हो कि मैं छोड़ता हूं । 1 अलगाव घटित होता है । तुम्हारा शरीर कामात्तप्त शरीर और तुम 2 हो जाते हो । अचानक 1 क्षण को भीतर उनके बीच जमीन आसमान की दूरी पैदा हो गई । शरीर तो आवेग में, कामवासना से उद्वेलित है । और केंद्र शांत है । मात्र देख रहा है । स्मरण रहे । वहां कोई संघर्ष नहीं है । सिर्फ अलगाव है । संघर्ष । तुम अलग नहीं होते । जब तुम लड़ते हो । तुम लड़ाई के विषय के साथ 1 होते हो । तुम जब मात्र छोड़ देते हो । तब तुम अलग होते हो । तब तुम इसे देख सकते हो । मानो तुम नहीं दूसरा देख रहा है । मेरे 1 मित्र बहुत वर्षों तक मेरे साथ थे । वे सतत धूम्रपान करते थे । चेन स्मोकर थे । और जैसा कि सभी धूम्रपान करने वाले करते है । मेरे मित्र ने भी निरंतर उससे छूटने की चेष्टा की । किसी सुबह अचानक तय करते कि - अब मैं धूम्रपान नहीं करूंगा । और शाम होते होते फिर पीने लगते । और फिर वह अपराधी अनुभव करते । और अपना बचाव करते । और तब कुछ दिनों तक धूम्रपान छोड़ने का नाम भी नहीं लेते । फिर वे यह सब भूल जाते । और किसी दिन साहस जुटाकर फिर कहते कि अब मैं धूम्रपान नहीं करूंगा । और मैं सिर्फ हंसता । क्योंकि यह घटना इतनी बार दुहरा चुकी थी । फिर वे खुद भी इस दुष्चक्र से ऊब उठे कि धूम्रपान करना । और छोड़ना । मानो हमेशा हमेशा के लिए उनका संगी साथी बन गया है । वे गंभीरता से सोचने लगे कि क्या करू । और तब उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं क्या करूं । मैंने उनसे कहा कि पहली बात तो यह कि धूम्रपान का विरोध करना छोड़ दो । धूम्रपान करो । और मजे से करो । 7 दिनों तक इसका कोई विरोध मत करो । इसे स्वीकार कर लो । उन्होंने कहा कि - यह आप क्या कह रहे हैं ? मैं इसके विरोध में रहकर भी इसे नहीं छोड़ सकता हूं । और आप इसे स्वीकार को कहते हैं । तब तो छोड़ने की जरा भी संभावना नहीं रहेगी । मैंने उन्हें समझाया कि तुम शत्रुता का रूख प्रयोग करके देख चुके । निष्फलता ही हाथ लगी है । अब मैत्री के रूख का प्रयोग करो । बस 7 दिनों के लिए धूम्रपान का विरोध मत करो । उन्होंने छूटते ही पूछा कि - क्या तब धूम्रपान छूट जाएगा ? मैंने कहा - तुम अब भी उसके प्रति शत्रुता का भाव रखते हो । छोड़ने के भाव में ही शत्रुता है । छोड़ने की बात ही भूल जाओ । धूम्रपान के साथ रहो । उसके साथ सहयोग करो । क्या कोई मित्र को छोड़ने का विचार करता है । 7 दिन तक छोड़ने की बात को भूल जाओ । उसका सहयोग करो । जितना संभव हो । उतने प्रगाढ़ ढंग से । उतने प्रेम के साथ पीओ । जब तुम धूम्रपान कर रहे हो । तो उस समय सब कुछ भूलकर धूम्रपान ही हो जाओ । उसके साथ आराम से रहो । उसके साथ संवाद साध लो । 7 दिन तक जितना संवाद साध लो । 7 दिन तक जितना चाहो उतना धूम्रपान करो । छोड़ने की बात ही भूल जाओ । ये 7 दिन उनके लिए विमर्श के दिन बन गये । वे धूम्रपान के तथ्य को सीधा सीधा देख पाए । वे इसके विरोध में नहीं थे । इसलिए अब वे इसका साक्षात्कार कर सकते थे । जब तुम किसी व्यक्ति या वस्तु के विरोध में होते हो । तो तुम उसका साक्षात्कार नहीं कर सकते । विरोध ही बाधा बन जाता है । तब विमर्श कहां । क्या तुम शत्रु पर विमर्श करते हो ? तुम उसे देख भी नहीं सकते । तुम उसकी आँख से आँख नहीं मिला सकते । शत्रु को देखना बहुत कठिन है । तुम उसी व्यक्ति की आंखों में आँख डालकर देख सकते हो । जिसे तुम प्रेम करते हो । प्रेम में ही तुम गहरे उतर सकते हो । अन्यथा आँख मिलाना मुश्किल है । मेरे उन मित्र ने धूम्रपान के तथ्य का गहराई से साक्षात्कार किया । 7 दिन तक वे विमर्श करते रहे । उन्होंने विरोध छोड़ दिया था । इसीलिए ऊर्जा सुरक्षित थी । और वह ध्यान बन गया । उन्होंने सहयोग किया । और वे धूम्रपान सी बन गए । 7 दिन बाद मेरे मित्र मुझे कहना भी भूल गये कि क्या हुआ था । मैं इंतजार कर रहा था कि वे और कहेंगे कि 7 दिन बीत गये । अब मैं धूम्रपान कैसे छोडूँ ? वे 7 दिन की बात ही भूल गये । 3 सप्ताह गुजर गये । तो मैंने ही उनसे पूछा कि आप बिलकुल भूल गये क्या ? उन्होंने कहा कि यह अनुभव सुंदर रहा । इतना सुंदर कि अब मैं किसी चीज के विषय में सोचना ही नहीं चाहता । पहली बार मैंने तथ्य के साथ संघर्ष नहीं किया । पहली बार मैं सिर्फ अनुभव कर रहा हूं । उसे जो मेरे साथ घटित हो रहा है ।
तब मैंने उनसे कहा - अब जब भी धूम्रपान की वृति पैदा हो । तो उसे छोड़ दो । उन्होंने फिर नहीं पूछा कि - कैसे छोड़ना है । उन्होंने पूरी चीज पर विमर्श किया था । और उससे ही वह पूरी चीज बचकानी दिखने लगी थी । संघर्ष की गुंजायश ही नहीं थी । तब मैंने उनसे कहा कि - अब जब फिर धूम्रपान की चाह पैदा हो । तो उसे देखो । और उसे छोड़ दो । सिगरेट को अपने हाथ में ले लो । 1 क्षण के लिए रूको । और तब सिगरेट को छोड़ दो । गिर जाने दो । और सिगरेट के गिरने के साथ साथ धूम्रपान की वृति पैदा हो । और तुम उसे छोड़ दो । तो सारी ऊर्जा 1 छलांग लेकर भीतर गति कर जाती है । विधि 1 ही है । केवल उसके आयाम भिन्न हैं । जब कोई कामना उठे । उस पर विमर्श करो । फिर, अचानक, उसे छोड़ दो । ओशो

कोई टिप्पणी नहीं:

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326