24 सितंबर 2011

मेरे स्कूल के दिन School Day

हर इंसान के रूप में प्रत्येक स्त्री पुरुष बाल युवा बूढे सभी को एक अनजानी सी अज्ञात सी तलाश है । हमेशा ही ऐसा लगता है । पता नहीं कुछ खो सा गया है । जिसे हम जन्म से जन्म से खोज रहे हैं । पर ये क्या खोया हुआ है । ये हमको भी नहीं मालूम रहता ।
कभी कभी किसी बात में भी मन नहीं लगता । तब मैं एक सिगरेट सुलगाता हूँ । और कमरे की 5 फ़ुट लम्बी और 4 फ़ुट ऊँची बङी खिङकी से देर तक बाहर देखता रहता हूँ । बाहर की रचना कुछ ऐसी है । मानों खिङकी के बाद ही जंगल हो । लगभग 300 मीटर बाद मकान हैं । पर बीच में खङे वृक्षों से कुछ इस तरह छिप गये हैं । जैसे दूर तक जंगल ही जंगल हो । यह दृश्य दिल को बङा सकून सा पहुँचाता है । और किसी दरवाजे के समान बङी खिङकी खुले में होने का अहसास सा देती है ।
योगियों को रात में जागना ही होता है । इसी खिङकी से ठीक लगा हुआ मेरा तखत बिछा हुआ है । खूबसूरत काली रात में खिङकी से झाँकता चन्द्रमा और चमकते तारे मानों मुझे दिलासा देते हैं - उदास मत होओ । हम तुम्हारे साथ है । फ़िर मैं उन्हें देर तक धीरे धीरे आगे बङते हुये देखता रहता हूँ । मुझे पीछे  छोङते  हुये वे भी अन्ततः उदास  होकर चले जाते हैं ।
और इसी तरह एक दिन सभी साथी जिन्दगी के किसी न किसी मोङ पर साथ छोङकर चले जाते हैं । समय का पहिया कभी किसी के लिये रुकता नहीं । समय के इस रथ

में कुछ देर के लिये कभी किसी का कभी किसी का साथ मिलता है । और फ़िर किसी न किसी जगह वे साथ छोङ ही देते हैं । तब शेष रह जाती हैं । बस उनकी यादें । खट्टी मीठी यादें । जिन्दगी के रंग अजीब । शुक्र है बोरोलीन करीब ।
इसीलिये उदासी शायद बहुत महत्वपूर्ण है । वो यादों में ही सही बिछङों से मिला देती है । पेङों के झुरमुट के बीच से खूबसूरत लङकियाँ महिलायें गुजरती हैं  - बेटा ! मन में लड्डू फ़ूटा । अभी एक लड्डू की मिठास खत्म नहीं हुयी । तब तक कोई और गुजरती है - बेटा ! मन में एक और लड्डू फ़ूटा । एक रुपये में दो दो लड्डू ।
काश ! जिन्दगी का निर्माण इस तरह हुआ होता । मन में हमेशा लड्डू ही फ़ूटते रहते । पर ऐसे भी कुछ दिन जिन्दगी में आते हैं । वे बचपन के दिन और स्कूल के दिन होते हैं । कैसे थे - मेरे स्कूल के दिन ?

1979..( मेरी उमर साढे 9 साल ) मैं 7 वी कक्षा में था । हमारा स्कूल जूनियर हाई स्कूल और मिडिल स्कूल के नाम से प्रसिद्ध था । यह एक कस्बे में था । और शहर से 2 किमी बाहर था । लङके लङकियाँ साथ साथ ही पढते थे । उन दिनों स्कूल कालेज की संख्याँ बहुत कम होती थी । और प्राइवेट तो लगभग होते ही नहीं थे ।
इस स्कूल में मेरे मित्र के रूप में मुजम्मिल अली । ऊदल सिंह चौहान । स्वदेश गुप्ता । संजय आदि खास मित्र थे । लङकियों में हेमा । रानी । फ़ूलमाला । पुष्पा । नीलम । सलमा आदि गर्लफ़्रेंड थी । संजय कहीं बाहर केरला साइड से आया था । उसकी माम की वहाँ पोस्टिंग हुयी थी । उसे फ़िल्मों का बहुत शौक था । वह बहुत मोटा था । और सब उसको मोटा कहकर ही बुलाते थे । जबकि हम दोस्त लङके दुबले थे । और उसके मैटर से शायद हम दो या फ़िर तीन भी बन जाते ।
उन दिनों संजय शुरू शुरू में हमारा दोस्त नहीं था । और नया नया ही स्कूल में भरती हुआ था । उस समय  " शोले " फ़िल्म का जबरदस्त बोलबाला चल रहा था । और वह तीन चार बार शोले देख आया था । गब्बर सिंह उसके सिर चढकर बोलता था । अब वह अपनी गब्बरी किस पर दिखाये । लिहाजा उसने हम तीन मुजम्मिल ऊदल और मुझे ही छाँट लिया । मुजम्मिल हमारी अपेक्षा तगङा था । अतः वह उससे कुछ कुछ मन ही मन डरता था । और मैं सबसे छोटा और दुर्बल भी था । इसका एक कारण ये भी था । मेरी शिक्षिका माँ ने उन दिनों जब बच्चे 5 या 7 और 8 साल की उमर तक कक्षा 1 में एडमिशन लेते थे । मुझे ढाई साल की उमर में ही कक्षा 1 पास करवा दिया । और चालाकी दिखाते हुये मेरी उमर भी 1 साल कम लिखवायी ।

खैर..उस साले हाथी ब्रान्ड मोटे ने खास मुझ लिटिल स्टुवर्ट  को ही छाँट लिया । मैं उससे इतना अधिक आतंकित था कि उसको देखते ही मुझे सू सू आने लगती थी । और तब उसकी निगाहों से बचने के लिये मैं बच्चों के पीछे छुपने की असफ़ल सी कोशिश करता ।
उन दिनों स्कूलों में कुर्सियाँ नहीं होती थी । हम टाट पर बैठते थे । वह मोटा सीधा आकर खङे खङे ही मुझे और ऊदले को पैर की ठोकर से मारता । और कहता - कितने आदमी थे । वो दो थे । और तुम तीन । फ़िर भी वापस आ गये । खाली हाथ । इसकी सजा मिलेगी । बरोबर मिलेगी । फ़िर वह बालपेन निकालता हुआ पिस्तौल की तरह दिखाता । और पूछता - कितनी गोली हैं इसके अन्दर ?
मैं अक्सर सोचता । इससे अच्छा तो ये कमीना हमें गोली ही मार दे । पर रोज रोज ही उस मोटे से पिटना । और

उसके गब्बरी डायलाग सुनना । मानों हमारी किस्मत बन चुका था । वह मुझे और ऊदले को ही मारता था । मुजम्मिल बेचारा मजबूर सा उसकी ऐलीफ़ेंटा बाडी को देखकर चाह कर भी हमारी कोई सहायता नहीं कर पाता था ।
समझ में नही आता था कि - इसका क्या उपाय करें ? या ऐसे ही रोज रोज पिटते रहें । पर हर चीज का उपाय होता है । मोटे का भी उपाय था ।... जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारो । मैं नहीं कहता । किताबों में लिखा है यारो । हम सबको रोज दस बीस पैसे स्कूल के लिये पाकेट मनी मिलता था । हमने और ऊदल ने शेयर मनी भगवान जी को 50 पैसे का परसाद बोल दिया । और मन्नत माँगी -  भगवान जी ! बस साला ये मोटा मर ही जाय ।.. एक आयडिया जो जिन्दगी बदल दे । फ़िलिप्स - आओ बनायें बेहतर कल ।

वास्तव में भगवान ने हमारी सुन ली । और मोटा मर गया । खुशी खुशी भी मगर बेमन से 50 पैसे का परसाद चङाया । क्योंकि चाट खाने को बहुत मुश्किल से पैसे मिलते थे ।.. आज की बचत । कल की सुरक्षा । L.I.C जीवन बीमा पालिसी ।
मगर ये खुशी सिर्फ़ तीन दिन ही रही । चौथे दिन मोटा फ़िर स्कूल आ गया । क्यों बेऽऽ ! वो मोटी आवाज में ठोकर मारता हुआ बोला - कितने आदमी थे ?
दरअसल वो मरा नहीं था । अपनी माम के साथ बाहर चला गया था । भगवान जी ने हमारे साथ बङा धोखा किया था । मुफ़्त में परसाद खा गये । काम भी किया नहीं । वैसे हम भी कम चालाक नहीं थे । बस थोङा सा उनके मुँह से चिपटा दिया । और बाकी का खुद ही हजम कर गये । फ़ालतू पब्लिक को क्या बाँटना । मेहनत की कमाई थी । खैर.. हमारी  50 पैसे की भारी पूँजी भी डूब गयी । फ़िर से पिटने लगे ।


तब एक दिन हम तीनों ने आतंकवादी प्लान बनाया । जिसके अनुसार हम तीनों को मोटे पर एक साथ बङा हमला करना था । मैंने उसको बस्ता घुमाकर मारने का डरपोक वाला काम लिया । मुजम्मिल ने घूँसा । और साहसी ऊदले ने खतरनाक वैपन...?
हम तीनों उस दिन क्लास में नहीं गये । मोटे को हमें मारे बिना उसकी रोटी नहीं पचती थी । पर उसे नहीं मालूम था । हम आज AK 47 लेकर तैयार खङे हैं । उसने हमें खोज लिया । और पास आकर - कितने आदमी..?
ऊदले ने पहले से तैयार खुला पेन निब की साइड से उसके पेट में भौंक दिया । और बहुत तेजी से बोला - साले ! तेरी मम्मी के चक्कू से दूध काट लूँगा । ( यह बात उसने संजय की मम्मी यानी आँटी के साउथ इण्डियन बङे आकार शरीर बनाबट से प्रभावित बालमन से घोर बदला लेने के उद्देश्य से कही थी । या कहिये उसके मन की भावना हमले के समय स्वतः निकली थी । )


मैं बहुत डरपोक था । और हमले से पहले ही कल्पना करने लगा था कि मैंने मोटे को बस्ता मारा । और वह गुस्से में मेरे पेट पर बैठ गया है । अतः उसी डर भाव की हङबङाहट में मैंने बस्ता घुमाकर मोटे को मारा । जो उसके बजाय ऊदले को लगा ।
हालांकि अप्रत्याशित हमले से घबराया और नोकीला निब पेट में घुसते ही मोटा भैऽऽ भैऽऽ करता हुआ जमीन पर गिरकर मोटी बेसुरी आवाज में रोने लगा । पर उसका डर इतना ज्यादा था कि - ये सोचते हुये वो हमें पकङने भागता हुआ पीछे पीछे ही आ रहा है । हम तेजी से बिना पीछे देखे स्कूल से भाग गये ।
मोटा जल्दी ही संभल गया । और उसे हमें पिटवाने का बहुत बङा मुद्दा मिल गया । उसने हेडमास्टर के पास जहाँ उस वक्त सभी मास्टर बैठे थे । जाकर कहा - ऊदला ने मुझे निब मारा । और कहा । तेरी मम्मी के चक्कू से दूध काट लूँगा । अपनी बात वह गोल कर गया ।
उसके बाद हम तीनों दो दिन स्कूल नहीं गये । जबकि सभी मास्टर हमारी बैचेनी से प्रतीक्षा कर रहे थे । तब

अर्जुन सिंह उर्फ़ वाणाधारी नाम के शिक्षक मेरी मम्मी को बाजार में मिल गये । और बोले - क्या बात है । राजीव स्कूल नहीं आ रहा ? तबियत खराब है क्या ?
मम्मी हैरान रह गयीं । दरअसल हम तीनों घर से तो स्कूल चले आते थे । पर मोटे और उसकी शिकायत के डर से इधर उधर घूमते हुये स्कूल का टाइम पास कर देते थे । स्कूल नहीं जाते थे ।
संयोग ऐसा बना । हमसे बैठा कर प्यार से सब बात पूछी गयी । हमारे अभिभावक हमें स्कूल खुद पहुँचाने आये । मोटे को खूब डाँट पङी । और हमारी दोस्ती करवा कर उससे हाथ मिलवाया गया । अभिभावकों के सामने तो मिडिल स्कूल के अध्यापक शिष्टता शालीनता से पंचायत निबटाते रहे । पर उनके जाते ही हम तीनों अभियुक्तों और संजय को बुलाया गया । हम तीनों के मुँह उतर गये । Fundament पर डण्डे की कल्पना खुद ब खुद होने लगी ।
सभी मास्टर एक साथ ही बैठे थे । वाणाधारी ने ऊदले को लक्ष्य कर पूछा - ऊदल तूने क्या कहा था ?
बङी मुश्किल से झेंपता हुआ ऊदला नीची नजर करके बोल सका - तेरी मम्मी के चक्कू से दूध काट लूँगा ।

सब मास्टरों ने जोरदार ठहाका लगाया । और फ़िर लगातार हँसते हुये हम बच्चों से घुमा फ़िराकर बारबार वही बात पूछते हुये फ़िर से ऊदल से कहते - तब तूने क्या कहा ? और उसके बताने पर फ़िर से ठहाका लगाते ।
हमें समझ नहीं आ रहा था । अध्यापकों को किस बात में मजा आ रहा था ? सब बारबार खूब हँसते । चतुर चूतिया संजय भी खूब हँस रहा था । मानों उसके फ़ेवर में बात हो रही हो । फ़िर तो ऊदला हीरो ही बन गया । पढाने से बोर हुये शिक्षक उसको देखते ही बुला लेते । और कहते - ऊदल ! वो बात मैं भूल गया । तूने संजय की मम्मी के लिये क्या कहा था ? फ़िर से बताना । उसके मासूम मुँह से वह बात उन्हें बहुत अच्छी लगती ।
संजय दिल का बुरा नहीं था । आण्टी का स्वभाव भी बहुत अच्छा था । दरअसल इस तरह वह हमारे साथ दोस्ती करना चाहता था । पर हम खामखाह ही उससे डर गये थे । बाद में पता चला । ये मोटा तो साला केवल ढोल की पोल ही था । हम उसके गुदगुदे पेट को खूब नोचते । हाथ फ़िराते । उसको गुदगुदी बहुत होती थी । जरा सा गुदगुदाते ही वह जमीन पर हँसता हुआ लोट पोट होकर पसर जाता था । और मोटी आवाज में हँसता था । उससे डरने लङने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी । महज गुद्गुदी करने से ही वह ..हैऽऽ हैऽऽ करता हुआ चारों खाने चित्त हो जाता था । बाद में हम चारों बहुत अच्छे दोस्त बन गये ।
आज मुझे उन सबकी उन दिनों की फ़िर से याद आ रही थी । न जाने कहाँ होंगे । मेरे बचपन के दोस्त । कोई चार साल पहले उस शहर के एक परिचित से मुलाकात हुयी थी । उसने बताया कि आण्टी ( संजय की मम्मी ) अभी भी वहीं हैं । पर संजय बोम्बे चला गया है । और अपने फ़िल्मी शौक के चलते वह फ़िल्मों में छोटी छोटी सहायक भूमिकायें करता हुआ कुछ सम्बन्धित कार्य भी कर रहा है ।
संजय ! तू जहाँ कहीं भी है । भगवान तुझे खुश रखे । आय लव यू वेरी मच यार । सच तेरी अब भी बहुत याद आती है ।.. हम भी अगर बच्चे होते । नाम हमारा होता गबलू बबलू । और खाने को मिलते लड्डू । दुनियाँ वाले कहते । हैप्पी बर्थ डे टू यू । हैप्पी बर्थ डे टू यू ।
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स्कूल से जुङी बहुत सी यादें हैं । जो आपको गुदगुदायेंगी । मिलते हैं ब्रेक के बाद । तब तक नो वेट ।
- आप सबके अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।

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