03 सितंबर 2011

लेकिन एक सच्चे गुरु का मिलना बहुत ही आवश्यक है - मीनू

राजीव जी ! बस बस बस । ये इस बार का लास्ट प्रश्न । इसके बाद मैं प्रश्न कुछ दिन बाद पूछूँगी ( शायद प्रसून की कहानी छपने के बाद )  बात ये हो गयी कि मुझे कल मैन्टी ने डाँटा ( प्यार से डाँटा )
मैन्टी ने कहा कि - तुम बार बार एलियन्स के बारे में पूछती रहती हो । क्या मेरे से तलाक लेकर किसी एलियन से शादी करनी है । तुम राजीव जी से काम की बात पूछो ।
राजीव जी ! दरअसल मैन्टी ने ये बात इसलिये कही कि - हम दोनों का सतनाम की दीक्षा लेने का पूरा इरादा है । लेकिन मजबूरी ये है कि हम इस साल भारत नहीं आ पायेगे । क्यूँ कि जिस कम्पनी में हम लोग नौकरी करते हैं । वे इस तरह की कम्पनियाँ है । जिनमें हर महीने बाद तनख्वाह नहीं मिलती । यहाँ पर एक साथ 6 महीने या 1 साल या 2 साल का इकठ्ठा पैकेज मिलता है ।
वैसे आजकल बहुत बडी अंतरराष्ट्रीय कम्पनियों में 5 साल तक का पैकेज भी मिलता है । तो ऐसे पैकेज सिस्टम के अंतर्गत 1 कान्ट्रेक्ट के अधीन हम बीच में छुट्टी लेकर नहीं आ सकते । वो बात अलग है कि कम्पनी में काम करते हुये अगर डेथ हो जायें । या सीरियस बीमार हो जायें । तो वो अलग बात है ।

लेकिन हम जब भी इण्डिया आये । तो सबसे पहला काम सतनाम की दीक्षा लेने का ही करना है । इसलिये आज सिर्फ़ मैंने मैन्टी के कहने पर सिर्फ़ असली काम की ही बात पूछ्नी है ।
पहली बात ये कि अगर कोई व्यक्ति किसी सच्चे सन्त से सतनाम की दीक्षा ले ले । तो क्या उसकी 84 हमेशा के लिये कट जाती है ? क्या सच्चे सन्त से ली हुई सतनाम की दीक्षा साधक को सचखण्ड तक ले जाती है ? ( बेशक 1 जन्म लगे । या 20 जन्म लगे )  ये 1 से अधिक जन्म वाली बात मैंने इसलिये कही । क्यूँ कि कई बार हमारी कुछ इच्छायें भी होती हैं । साथ में पिछ्ले अनेक जन्मों के जमा हुये संस्कार भी होते हैं ।
साथ में ये भी बतायें कि जब कोई साधक सतनाम की साधना करता हुआ सचखण्ड पहुँच जाता है । तो क्या फ़िर वो आत्मा वहाँ पर हमेशा के लिये 100% सुरक्षित हो जाती है । क्या अन्य लोकों ( देवलोक । स्वर्ग आदि ) की तरह उस आत्मा को वहाँ से कोई समय आदि पूरा होने पर फ़िर से नीचे तो नहीं गिरा दिया जाता ।


दूसरा प्रश्न - आपकी बात अच्छी तरह समझ में आ गयी कि अगम लोक तक द्वैत का अस्तित्व है । लेकिन अनामी लोक जो लास्ट है । वहाँ जाकर अद्वैत ही रह जाता है । अब आपकी बात से ये तो समझ में आ गया कि - अनामी लोक ही लास्ट है । अनामी पुरुष को ही परमात्मा कहा गया है । जिससे उपर कुछ नहीं ।
अब हमारे को समझ में आया कि - परमात्मा को अनामी क्यूँ कहा गया । तभी सन्तों ने परमात्मा को सिर्फ़ " है " कहा है । बस वो " है " । तभी तो उसे साहेब या मालिक कहा है ।
अब ये भी बता दें कि - क्या " दाता " भी उस मालिक यानि परमात्मा को ही कहते हैं । जैसे आपने किसी और लेख में कहा था कि - उस तक सच्चे मन से की गयी प्रार्थना जरुर पहुँचती है । तो क्या जब भी हम उस मालिक या साहेब या परमात्मा या उस अनामी पुरुष को याद करते हैं । तब क्या उनको साथ की साथ पता लग जाता होगा । अगर हम अनामी पुरुष परमात्मा को सच्चा प्यार करें । तो क्या वो भी हमें प्यार करेंगे । क्या हमारे किये गये प्यार से बहुत अधिक प्यार ।
तीसरा प्रश्न - जो आपने 2 उदाहरण दी थी । 1 तो बडे मैदान में लाखों शीशे रख दो । तो उसमें सूरज का प्रतिबिम्ब हर शीशे में नजर आयेगा । लेकिन सूरज वास्तव में 1 ही रहेगा । ये उदाहरण इतनी ठीक नहीं थी । दूसरी वाली उदाहरण फ़िर भी ठीक थी । जैसे पानी 1 ही है । लेकिन स्थिति के अनुसार पावर का फ़र्क है । लेकिन बेसिक गुण समान और एक जैसे हैं ।
इस बात पर मुझे भी 1 विचार आया । अगर हम इस तरह की उदाहरण से समझें । सिर्फ़ उदाहरण के तौर पर । 1 सूर्य ( परमात्मा ) है । उसकी अनेक किरनें ( सभी आत्मायें ) है । क्या ये बात उदाहरण के तौर पर ठीक है ।

प्लीज प्लीज प्लीज ! सिर्फ़ इन आज के 3 सवालों के जवाब दे दीजिये । नहीं तो मैन्टी मेरे को भाषण देने लग जायेगा कि - तुम काम की बात पूछती नहीं । बस एलियन की कहानियाँ सुनती रहती हो । बाकी रही बात । मेरे पिछ्ले वाले बडे लेख के सभी प्रश्नों के उत्तर आपने दे दिये । उनमें सिर्फ़ 3 प्रश्न ऐसे थे । जिनके बारे में आपने कहा था कि - ये फ़िर कभी बतायेंगे । कोई बात नहीं । मैं उन प्रश्नों को कुछ दिन बाद ( शायद प्रसून की प्रेत कहानी छ्पने के बाद ) लेकर आऊँगी । इसलिये आप इन आज के मैन्टी के सिर्फ़ इन 3 प्रश्नों के उत्तर दे दीजिये । नहीं तो जब तक इन प्रश्नों के उत्तर नहीं छ्पते । तब तक मुझे मैन्टी का लेक्चर सुनना पडेगा कि - तुम जो बात नहीं पूछनी । वो पहले पूछती हो । जो असली बात पूछने वाली है । उसे बाद में पूछती हो ।
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धन्यवाद मैन्टी जी और मीनू जी । आपके प्रश्नों के उत्तर ।
अगर कोई व्यक्ति किसी सच्चे सन्त से सतनाम की दीक्षा ले ले । तो क्या उसकी 84 हमेशा के लिये कट जाती है ? क्या सच्चे सन्त से ली हुई सतनाम की दीक्षा साधक को सचखण्ड तक ले जाती है ? ( बेशक 1 जन्म लगे । या 20 जन्म लगे )  ये 1 से अधिक जन्म वाली बात मैंने इसलिये कही । क्यूँ कि कई बार हमारी कुछ इच्छायें भी होती हैं । साथ में पिछ्ले अनेक जन्मों के जमा हुये संस्कार भी होते हैं ।
- 84 क्या है ? मनुष्य के अन्दर बस गया अज्ञान और विभिन्न पशुता भाव ही 84 है । जो उसे 84 में ले जाता है । आप जब बच्ची थीं । तब अक्सर ही खाते समय मुँह कपङे वगैरह सना लेती थी । कहीं भी टायलेट आदि कर लेना । बहती नाक से मुँह गन्दा कर लेना । ये सब था । पर अब वैसा क्यों नहीं करती ?
उत्तर है - समझ आ जाना । आप तो अब भी वही हो । फ़र्क इतना हुआ । समझ आ गयी । इसी तरह इंसान के कर्मों में छिपी पशुता ही 84 का कारण होती है । खुद का पेट भरने की चिन्ता । नींद । और सम्भोग की इच्छा । मनोरंजन के विलास चाहना । ये मुख्य बातें पशुओं में भी होती है । अपने बच्चों को पालना । अपने बच्चों की सुरक्षा । उनसे प्यार । ये सब भी पशुओं में भी होता है ।

अब जिस प्रकार एक समझदार वकील । पुलिसमैन । न्यायाधीश । शिक्षक आदि कभी ऐसा काम नहीं करेंगे कि उन्हें अपराधी ( जीवात्मा ) की तरह जेल ( 84 लाख योनियाँ ) में जाना पङे । यदि किसी गलती ( जीव के लोभ लालच वासना ) से ऐसा ( कर्म संस्कार ) हो भी जाये । तो वे उसका उपाय ( योग ज्ञान ) करके उसका समाधान ( योग से संस्कार जला देना ) कर देंगे । अब ये सब उनके ज्ञान के कारण ही तो संभव होगा । क्योंकि उन्हें अपराध और उसके परिणाम पता हैं । फ़िर क्या वे जानबूझ कर गलती कर सकते हैं ?
उसी प्रकार ये दुर्लभ आत्मज्ञान दुर्लभ हँसदीक्षा कोई मामूली चीज नहीं है । ये आपके अन्दर से समस्त पशुता भाव का नाश करके आत्मज्ञान का प्रकाश कर देती हैं । और वासनाओं को समूल नष्ट करके जला देती है । अतः 84 हमेशा के लिये कट जाती है ।
अब दूसरी तरह से सोचिये । जब आप पढ ( सतसंग या ब्लाग पढना ) रहीं थी । तब आपका भविष्य ( जीव का ज्ञानरहित जीवन ) आदि सब कुछ अनिश्चित था । फ़िर आपने किसी छोटी नौकरी ( हँसदीक्षा शुरूआत ) का प्रयास किया होगा । फ़िर अनुभव ( योग यात्रा ) के द्वारा प्रमोशन ( योग की उच्च स्थिति ) प्राप्त किया होगा । अब अभी की स्थिति ( ज्ञान स्थिति ) में क्या आपका ऐसा भाव ( मनस्थिति ) बन सकता है कि - पता नहीं मेरा भविष्य ( मोक्ष ) क्या होगा ?


मैं कुछ अर्निंग ( अक्षय धन ) कर पाऊँगी या नहीं । मैं कमा ( नाम सुमरन ) पाऊँगी या नहीं । मैं ठीक से रोटी कपङा मकान ( सचखण्ड ) हासिल कर पाऊँगी या नहीं । जाहिर है । किसी कारणवश आपका स्तर ( योग में बाधायें ) 20-30% गिर भी जाय । 100% कभी नहीं गिरने वाला । ये गिरा हुआ स्तर आप खुद को संभालकर फ़िर से उसी लेवल पर ले आओगी ।
अतः कोई महामूर्ख या विकट पागल ही होगा । जो मन्त्री प्रधानमन्त्री बनने के बाद चपरासी बना हो । किसी रेहङी वाले का उधोगपति बनना कोई बङी बात नहीं । पर किसी टाटा बिरला को रिक्शा चलाकर पेट भरने की नौबत आ जाय । ऐसा उदाहरण महामूर्खता की पहचान ही होगा । जाहिर है । ऐसा नहीं होता । यहाँ धन के बजाय ज्ञान पक्ष से अधिक विचार करें ।
दूसरे हर प्रकार की आत्माओं का वर्गीकरण है । हँस ज्ञान वाली आत्मा सिर्फ़ या तो मनुष्य रूप रहती है । या फ़िर सचखण्ड और उससे ऊपर के स्थानों में । अतः दूसरे परिणाम को प्राप्त होने का सवाल ही नहीं ।
हम जो 1 सपना देखते हैं । ये भी हमारी वासना की पूर्ति करते हुये उस 1 कर्म संस्कार कारण को खत्म कर देता हैं 

। जागृत अवस्था में किसी इच्छा या कर्मफ़ल की प्राप्ति से तृप्त हो जाने से फ़िर वह कर्म संस्कार रूप कारण खत्म हो जाता है । ज्ञान द्वारा योग में विभिन्न संस्कार इसी तरह फ़िल्म सी देखते हुये तेजी से खत्म होते हैं । यहाँ तक कि एक एक घण्टे के योग में एक अगला जन्म या 100-100 साल का नरक भी खत्म हो जाता है । अतः स्वपन । जागृत अवस्था में भोग । और योग द्वारा शीघ्रता से प्रतीकात्मक भोग लेना । इस तरह 3 तरह से जमा कर्म संस्कार तेजी से जलते हैं । और अन्त में बिलकुल समाप्त हो जाते हैं । आत्मा के ऊपर से ज्यों ज्यों कर्मों का आवरण हटता ( जलता ) जाता है । वह कृमशः अधिक प्रकाशित हो जाती हैं । और अन्त में बिलकुल आवरण रहित होते ही मुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाती है । अतः कोई भी व्यक्ति थोङा भी समझदार है । तो अधिकतम 3 जन्म में मुक्त हो जाता है । जो उसे हँसदीक्षा के बाद लगातार मिलने ही हैं । दूसरे अन्दर के अलौकिक आत्मिक आनन्द का रस प्राप्त होते ही दुनियाँ के सभी रस वैसे ही फ़ीके लगने लगते हैं ।
अब जैसे किसी भी व्यक्ति को पूरे ठाठवाठ के साथ शाही अन्दाज में दुनियाँ की सैर करने का मौका मिले । तो वह

कितना प्रसन्न होगा । चाँद पर जाने का मौका आये । तो और भी ज्यादा प्रसन्न होगा । पर मुझे ये सब बोरिंग लगता है । क्योंकि मैंने अखिल सृष्टि के एक से बङकर एक स्थान देखे हैं । अति सुन्दर अप्सरायें । बहुत प्रकार की दिव्य सुन्दरियाँ । देवियाँ देखी हैं । देखता हूँ । मिलता हूँ । फ़िर भला मुझे यहाँ की चीजों में क्या रस आयेगा ?
सतनाम का प्रचार और जीवों को चेताना ही सच्चे सन्त का एकमात्र कार्य होता है । ये भी ठीक आपके पैकेज सिस्टम की तरह एक निश्चित समय तक करना हमारे लिये अनिवार्य है । वरना ये सब भला मैं करता - नेवर । बहुत जल्दी ही मेरा पैकेज भी पूरा होकर सैलरी मिलने वाली है । मैं भी इस जहाँ को बाय बाय करने वाला हूँ । यदि नया पैकेज जबरदस्ती न दिया गया तो । रहना नहीं देश विराना है । यह संसार कागद की पुङिया बूँद पङे गल जाना है ।
साथ में ये भी बतायें कि जब कोई साधक सतनाम की साधना करता हुआ सचखण्ड पहुँच जाता है । तो क्या फ़िर 


वो आत्मा वहाँ पर हमेशा के लिये 100% सुरक्षित हो जाती है । क्या अन्य लोकों ( देवलोक । स्वर्ग आदि ) की तरह उस आत्मा को वहाँ से कोई समय आदि पूरा होने पर फ़िर से नीचे तो नहीं गिरा दिया जाता ।
- हमारी सत्ता में कभी किसी को गिराया नहीं जाता । बल्कि जितना हो सके । उठाया जाता है । ये गिराने का काम तो त्रिलोकी का राष्ट्रपति काल पुरुष और उसकी बीबी ही जीव को माया जाल वासना कर्मजाल में फ़ँसाकर करते हैं । कालपुरुष और भाभी ( मायावती डार्लिंग । आध्या शक्ति ) तो मेरा नाम सुनकर ही घवराते हैं । फ़िर मेरी किसी आत्मा ( दीक्षा प्राप्त ) को वे या उनके चेले छू भी जायँ । ऐसी हिम्मत किसकी हो सकती है ।
अब ये भी बता दें कि - क्या " दाता " भी उस मालिक यानि परमात्मा को ही कहते हैं । जैसे आपने किसी और लेख में कहा था कि - उस तक सच्चे मन से की गयी प्रार्थना जरुर पहुँचती है । तो क्या जब भी हम उस मालिक या साहेब या परमात्मा या उस अनामी पुरुष को याद करते हैं । तब क्या उनको साथ की साथ पता लग जाता होगा । अगर हम अनामी पुरुष परमात्मा को सच्चा प्यार करें । तो क्या वो भी हमें प्यार करेंगे । क्या हमारे किये गये प्यार से बहुत अधिक प्यार ।
- मुख्य दाता और सबको देने वाला तो सिर्फ़ परमात्मा ही है । और वही सबको देता है । लेकिन स्थितियों के

अनुसार भगवान । ईश्वर । देवी । देवता आदि को भी लोग उस भाव अनुसार कह देते है । समाज में दानी परोपकारी पुरुषों को भी दाता कहा जाता है ।
आप उससे प्यार करो या न करो । वह हमेशा ही सबसे प्यार करता है । इसलिये जीवन के सभी - 2 to 9 भावों - काम । क्रोध । लोभ । मोह । मद ( घमण्ड ) मत्सर ( ईर्ष्या या जलन ) ज्ञान । वैराग्य । जो मन की स्थितियाँ ही हैं । इन सबसे परे - 1 शाश्वत प्रेम । आत्मा का ही भाव है ।  यह अलग प्रेम है । ( मनुष्य वाला प्रेम वासनात्मक और स्वार्थी होता है । आत्मज्ञान होने पर ही प्रेम का यह फ़र्क समझ में आता है ) अन्त में 0 शून्य होने की स्थिति है । हो गयी 10 की गिनती पूरी । 0 शून्य के बाद फ़िर 1 ।
मैंने उस लेख में एक खास बात भी कही । यानी वो सही तरीका पता हो । तभी प्रार्थना की बात बनती है । परमात्म नियम के अनुसार - परमात्मा से मिलने के लिये । दान का सही फ़ल पाने के लिये । प्रार्थना की अर्जी लगाने के लिये । एक सच्चे गुरु का मिलना बहुत ही आवश्यक है । तभी बात बनती है । बिना गुरु के यह काम 


असंभव बताया गया है । जैसे आप यह pc या नेट भी तरीका जाने बिना नहीं चला सकते । मामूली चाय भी नहीं बना सकते । कोई भी काम नहीं हो सकता । चाहे वह छोटा हो या फ़िर बङा ।
जिस प्रकार मोबायल ( जीव ) में सिम ( ज्ञान या दीक्षा ) डालकर नम्बर डायल (  प्रार्थना या अर्जी ) करके टावर ( गुरु ) द्वारा ही अपने इच्छित व्यक्ति ( परमात्मा ) से बात हो सकती है । केवल खाली सिम रहित मोबायल सैट ( ज्ञान रहित और निगुरा जीव ) से नहीं । उसी प्रकार परमात्मा से किसी भी सम्बन्ध सम्पर्क हेतु एक सच्चे सदगुरु का होना बहुत आवश्यक है । वरना आपको फ़िर तरीका कौन बतायेगा ? आपकी लाइन कौन जोङेगा ?
तीसरा प्रश्न - जो आपने 2 उदाहरण दी थी । 1 तो बडे मैदान में लाखों शीशे रख दो । तो उसमें सूरज का प्रतिबिम्ब हर शीशे में नजर आयेगा । लेकिन सूरज वास्तव में 1 ही रहेगा । ये उदाहरण इतनी ठीक नहीं थी । दूसरी वाली उदाहरण फ़िर भी ठीक थी । जैसे पानी 1 ही है । लेकिन स्थिति के अनुसार पावर का फ़र्क है । लेकिन बेसिक गुण समान और एक जैसे हैं ।


इस बात पर मुझे भी 1 विचार आया । अगर हम इस तरह की उदाहरण से समझें । सिर्फ़ उदाहरण के तौर पर । 1 सूर्य ( परमात्मा ) है । उसकी अनेक किरनें ( सभी आत्मायें ) है । क्या ये बात उदाहरण के तौर पर ठीक है ।
- वास्तव में आत्मा का सबसे सटीक उदाहरण तो सूर्य और दर्पण का ही होता है । भले ही अभी आप उसको ठीक से समझ नहीं पा रहे हो । घङे और जल का उदाहरण वास्तव में आत्मा का न होकर शरीर की घटोपाधि ( घट उपाधि ) की रियल स्थिति है । उदाहरण नही है । ( विस्तार भय से कभी कभी पूरा स्पष्ट नहीं हो पाता । ) यानी 5 कच्चे तत्वों का बना ये पंच रचित अधम शरीर किसी जल में तैरते  कच्चे घङे के समान है । जब साधक घट उपाधि को क्रियात्मक स्तर पर जानता है । तव उसे अन्तर में ठीक वैसा ही दृश्य दिखाई देता है । जैसा महाभारत सीरियल की कास्टिंग में शुरू में एक बैठे हुये साधु के शरीर की सिर्फ़ आउट लाइन ही दिखाई देती है । और धुँआ उङ रहा हो ।
बाकी किरण वाला उदाहरण इसलिये ठीक नहीं है कि वह उसके प्रकाश से बनी है । वह किसी भी स्थिति में सूर्य नहीं बन सकती ।
सूर्य और दर्पण का उदाहरण इसलिये सबसे अधिक सटीक है । क्योंकि जीवात्मा भाव आत्मा का प्रतिबिम्ब ही है । इसमें जीव भाव पूर्णतया हटते ही वह फ़िर से मुक्त आत्मा हो जाता है । दूसरे आप लाखों शीशे और मैदान को छोङिये । आप एक छोटा शीशा ( मुँह देखने वाला दर्पण ) । और एक बङा शीशा । तथा एक पारदर्शी काँच लीजिये । अब इन तीनों को सूर्य के सामने लाईये ।


पहले खुली आँखों से सीधे सूर्य देखिये । बहुत चमक से आँखें चौंधियाती है । अब बङे दर्पण में सूर्य देखें - दर्पण की क्षमता अनुसार चमक । आँखों पर प्रभाव कम । अब छोटे दर्पण में - चमक और प्रभाव और भी कम । अब पारदर्शी काँच में - स्तर और भी घट गया । ठीक ऐसे ही आत्मा की विभिन्न अनगिनत स्थितियाँ बनती हैं ।
अब फ़िर से बङे दर्पण पर आ जाईये । प्रथम अवस्था में एकदम साफ़ दर्पण में सूर्य देखिये । सूर्य एकदम स्पष्ट और प्रत्यक्ष चमक वाला दिखेगा । यह साफ़ दर्पण मनुष्य अंतकरण की स्वच्छ निर्मल स्थिति को बताता है । योगी अपना अंतकरण ( दर्पण ) योग द्वारा ऐसा ही शुद्ध रखते हैं । तब आत्मा ( सूर्य या आत्मप्रकाश ) ऐसे ही नजर आने लगता है ।
द्वितीय अवस्था - अब इसी दर्पण पर पानी फ़ैला दीजिये । फ़िर सूर्य देखें । प्रतिबिम्ब धुँधला । और चमक फ़ीकी । यह मनुष्य के अन्दर मन में निरन्तर उठती विचार लहरों की स्थिति हुयी ।
त्रतीय अवस्था - अब इसी दर्पण पर थोङी धूल रगङकर गन्दा कर दे । अब सूर्य कैसा हुआ ? यह मनुष्य की मलिन वासनाओं की स्थिति हो गयी ।
चतुर्थ अवस्था - अब इसी दर्पण पर ढेरों कालिख पोत दें । अब सूर्य कैसा दिखा ? ये मनुष्य की तामसिक या राक्षसी वृतियाँ होने से आत्मप्रकाश खत्म सा ही हो गया ।
अब ये सब परिवर्तन अंतकरण ( दर्पण ) में ही तो हुये । सूर्य तो ज्यों का त्यों ही चमक रहा है । हमेशा ही चमकता रहता है । बस यही रहस्य है । इसी दर्पण को साफ़ करना रखना ही खास बात है ।
ये मैंने समझाने के लिये चार प्रमुख अवस्थायें बतायीं हैं । स्थितियाँ तो बहुत बनती हैं ।
दर्पण सूर्य से असल सूर्य तक जाना - अब दर्पण में सूर्य को देखने से आशय है । सच्चे गुरु ने आपको आत्मा की झलक दिखा दी । इसी को देखते हुये इसी के प्रकाश में आप सूर्य तक की यात्रा तय कर लोगे । अब यहाँ एक चीज गौर से समझो । आप जमीन पर खङे हैं । और दर्पण का सूर्य देखा । यह हँस दीक्षा हो गयी । अब असल सूर्य और आपके बीच एक सीधी अति लम्बी लाइन या मार्ग है । तो इसी दर्पण वाले सूर्य ( यह खुद जीवात्मा हुआ ) के सहारे ( ध्यान ) आप इसी लाइन ( सन्तमत का मध्य मार्ग ) पर बढते चले जाओ । ज्यों ज्यों आप असल सूर्य ( परमात्मा ) के निकट होते जायेंगे । दर्पण का प्रतिविम्ब बङा ( यहाँ योग की उच्च स्थिति ) चमक तेज ( आत्मप्रकाश बढना ) गर्मी तेज ( योग पावर ) होती जायेगी । अन्त में बिलकुल सूर्य ( परमात्मा ) के पास जाकर दर्पण सूर्य ( जीव प्रतिबिम्ब ) खत्म हो जायेगा । फ़िर उसकी क्या आवश्यकता है ? अब साक्षात ( परमात्मा से साक्षात्कार ) सूर्य ही आपके सामने है । इसी उदाहरण पर ध्यान देने से आपको पूरी योग यात्रा । जीवात्मा का मुक्त होना । या कैसे निज आत्मस्वरूप होना । सब कुछ आसानी से समझ आ सकता है । फ़िर भी जो समझ न आया हो । निसंकोच फ़िर से पूँछें । मेरा एकमात्र उद्देश्य आपको सिर्फ़ आत्मज्ञान से परिचय कराना और उसे प्राप्त कराना भी है ।
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हे सदगुरु स्वामी ! प्रथम आपको बारम्बार प्रणाम ! आपकी कृपा से मेरा मन बुद्धि सदैव ही निर्मल रहे । ऐसा ही आशीर्वाद दें ।
- आप सबके अन्तर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु को मेरा सादर प्रणाम ।

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