28 सितंबर 2011

क्या सत्य को खोजा जा सकता है ? मोहिन्दर रंधावा

कुलश्रेष्ठ जी ! सत श्री अकाल ! मैं मोहिन्दर रंधावा निर्मल बंसल भिलाई का मित्र जानना चाहता हूँ - क्या सत्य को खोजा जा सकता है ? जैसे कि आपके ब्लाग में हेडलाइन है - सत्यकीखोज । क्या ये प्रश्न ही गलत नहीं है ? मेरे हिसाब से सत्य को जाना जा सकता है । please clarify . मोहिन्दर रंधावा । भिलाई । ई मेल से ।
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ऐसे मेल भी अक्सर मुझे प्राप्त होते हैं । जिनसे मुझे लगता है कि - आप लोगों को भी मुझे छेङने में मजा आता है । देखिये कुछ मेल्स के उदाहरण । बकौल रूप जी की मौसी सुखदीप जी - राजीव जी ! आपसे प्रश्न पूछकर मजा आता है । बकौल कामिनी जी - पाठकों के जानदार सवाल । आपके शानदार जबाब ।
बकौल मेरी प्रेमिका - तुम्हें ज्ञान व्यान कुछ नहीं है । तुम्हारी स्पेशलिटी बस प्रेत कहानियों की है । सो उसी को लिखा करो । और प्लीज । थोङी हाट यानी सेक्स मिक्स लिखा करो ।..21 सेंचुरी के माडर्न बाबा तुम्हारी तपस्या 


भंग करके ही मानूँगी । आय लव यू ! लल्लू बाबा ।
बकौल मेरे यार दोस्त - आजकल बाबा लोगों पर छापे बहुत पङ रहे हैं । रोज किसी न किसी बाबा की पोल खुल रही है । ( इनका मतलब था । मेरी भी खुलने वाली है । खुलकर रहेगी । और ऐसा मौका आने पर वे पोल खोलने वालों का पूरा पूरा सहयोग करेंगे ) सो ध्यान रखना ।  हम तुम्हारे शुभचिंतक हैं ।
बकौल मेरे घर के छोटे छोटे बच्चे - अरे ( संवोधन अनुसार ) क्या बेकार की बातें लिखते रहते हो आप । कोई गेम या मूवी प्ले करो ।
तो देखा आपने । अपने ऐसे शुभचिंतकों के होते कौन बेहिसाब तरक्की नहीं करेगा ।
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खैर..अब आईये रंधावा जी के प्रश्न की बात करते हैं । पहली बात तो यही है । सत्यकीखोज - आत्मज्ञान .. यानी मेरा आशय यहाँ ये है । ( शाश्वत ) सत्य जिसकी तलाश इंसान आदिकाल से ही करता चला आ रहा है । वह सिर्फ़ - 


आत्मज्ञान ही है । आत्मा का ज्ञान होते ही सभी प्रश्न स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं । सारे ज्ञात अज्ञात रहस्य शीशे की तरफ़ साफ़ हो जाते हैं । इसलिये ब्लाग का हेडलाइन सिर्फ़ - सत्यकीखोज नहीं है । बल्कि सत्यकीखोज - आत्मज्ञान है । ऐसे में इसका अर्थ मेरे दृष्टिकोण से एकदम बदल जाता है ।
अब चलिये । फ़िर भी आपके ही शब्दों में बात कर लेते हैं - क्या सत्य को खोजा जा सकता है ?
देखिये ये मैं अपनी बात नहीं कह रहा । बल्कि आत्मज्ञानी सन्तों की वाणी है -
कहूँ वस्तु धरी । कहूँ खोजो । वस्तु न आवे हाथ । वस्तु तभी पाईये । जब भेदी लियो साथ ।
अब गौर फ़रमाईये । सन्त मामूली बात तो कहते नहीं । जाहिर है । इसमें आत्मा या परमात्मा के ज्ञान की ही बात कही गयी है । अगर ये सांसारिक वस्तु की बात होती । तो फ़िर सन्त इतनी तुच्छ निम्न कवियों जैसी तुकबन्दी करते क्या ? इसलिये देखें । खोजो शब्द स्पष्ट कहा है ।
अब कायदा में रंधावा जी ! आपकी बात का उत्तर तो यहीं मिल जाता है । क्योंकि अभी मुझे पक्का कन्फ़र्म तो 


नहीं हो पा रहा । पर शायद यह कबीर साहब की ही वाणी है । लेकिन ये अवश्य पक्का है । ये आत्मज्ञानी सन्तों की वाणी है । और वैसा होने पर वे स्पष्ट खोज शब्द का प्रयोग कर रहे हैं ।
अब दूसरा उदाहरण भी मैं अपना नहीं दूँगा । आपने बहुत प्रसिद्ध पुस्तक - डिस्कवरी आफ़ इण्डिया .. का नाम अवश्य सुना होगा । इसका हिन्दी रूपान्तरण है - भारत - एक खोज । क्या अब आप मुझे बतायेंगे । इसका मतलब क्या है । युगों से प्रसिद्ध भारत में क्या खोजा जा रहा था ।
तीसरा उदाहरण भी मैं अपना नहीं दूँगा । बचपन में पढा था । कोलम्बस भैया ने अमेरिका की खोज की । क्या आप मुझे भी अपने भाव में ( शब्द पर ध्यान दें ) इसका मतलब बतायेंगे । अमेरिका पहुँचकर वो जान गया था । या उसने अमेरिका खोजा था ।
चौथा उदाहरण भी मैं अपना नहीं दूँगा । आपने शायद ये दोहा सुना हो -
कस्तूरी कुण्डल बसे । मृग ढूँढे वन माँहि । ऐसे घट घट राम है । दुनिया देखे नाहिं ।
अब बताईये । सन्तों ने मृग की अपनी ही नाभि में बसी खुशबूदार कस्तूरी के लिये ढूँढे यानी खोज शब्द का प्रयोग क्यों किया ?


पाँचवा उदाहरण भी मैं अपना  नहीं दूँगा । बल्कि आपके ही मित्र और मेरे मण्डल के शिष्य श्री निर्मल बंसल का दूँगा । बंसल जी से पूछिये । कितने समय से वे इस ज्ञान को खोज रहे थे । और इसके लिये कितना भटके । कई मण्डलों में घूमते फ़िरे । दीक्षायें भी ली । आठ साल स्त्री बृह्मचर्य का पालन किया । लम्बे समय तक ध्यान का अभ्यास किया । और मेरे पास आने से पहले वे राधास्वामी की पंचनामा दीक्षा प्राप्त थे । उनको डायबिटीज । ब्लड प्रेसर । नींद न आना ( अनिद्रा ) घबराहट आदि तमाम गम्भीर परेशानियाँ थी । और ध्यान से परेशानियों का अनुभव अलग था ।  ये सब मुझसे मिलने से पहले ।
तब एक दिन उन्होंने गूगल में अनुराग सागर सर्च ( शब्द पर ध्यान दें ) किया ।  तो अनुराग सागर के साथ 1 के साथ 1 फ़्री .. स्कीम में " राजीव बाबा " मिल गये । ब्लाग पढा । सवाल जबाब किये । बहुत बार फ़ोन भी किये । करते हैं । आगरा आये । दीक्षा ली ।
अब आगे सुनिये - बिगङा ध्यान सही हुआ । जीवन का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त होने से संतुष्ट । बीमारियों से लगभग 


निजात । बङिया नींद आने लगी । जिसके लिये पहले तरसते थे । सही दीक्षा यानी पंचनामा और हँसदीक्षा का अन्तर जाना । लगभग 6 महीने अभ्यास के बाद । यदि उन्होंने सफ़लता से हँस पास कर लिया । तो परमहँस दीक्षा होगी ।
अब आप बताईये । इस सबको खोज नहीं । तो फ़िर क्या कहेंगे । उदाहरणों की लम्बी लाइन लगी है । पर मेरे ख्याल से इतने काफ़ी हैं ।
तो सत्य क्या है ? शाश्वत सत्य क्या है ? इस मनुष्य जीवन का वास्तविक सत्य क्या है ?  ये प्रश्न अंतर में पैदा होते ही फ़िर इसको जानने की तलाश ( शब्द पर ध्यान दें ) शुरू हो जाती है । और पहली स्टेज में यह प्रश्न उत्पन्न होने पर फ़िर जन्म जन्म की यात्रा शुरू हो जाती है । और फ़िर हजारों लाखों ( स्थिति के अनुसार ) जन्मों के दान पुण्य कर्मों से तब जीव आत्मज्ञान की तरफ़ आ पाता है । इसलिये मेरे ख्याल में खोज शब्द उचित ही है । पहले खोज ही होती है । जाना बाद में जाता है ।
- आप सबके अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।

27 सितंबर 2011

श्री महाराज जी चण्डीगढ में 2



                                 महाराज जी सतसंग करते हुये ।




                                         महाराज जी सतसंग करते हुये ।


                                  महाराज जी सतसंग करते हुये ।

                                        महाराज जी सतसंग करते हुये ।


                                           आशीर्वाद ।


                                          आशीर्वाद । मदन को


                                                 सुखी रहो बेटा ।


                                              आयुष्मान भव


                                  श्री महाराज जी कुलदीप को आशीर्वाद देते हुये 


                                             महाराज जी सतसंग करते हुये ।

श्री महाराज जी चण्डीगढ में 1

                                       श्री महाराज जी फ़ोन पर बात करते हुये





                                            यूँ होती है दीक्षा


                          श्री महाराज जी उनके साथ सन्त और लालडू के मदन


                              श्री महाराज जी उनके साथ सन्त 


                                  श्री महाराज जी भृमण पर

                           श्री महाराज जी कुलदीप के साथ । कुलदीप सफ़ेद शर्ट में


                                        श्री महाराज जी भृमण पर


                                         श्री महाराज जी भृमण पर


                                      श्री महाराज जी भृमण पर


                                            सांयकालीन चर्चा

24 सितंबर 2011

मेरे स्कूल के दिन School Day

हर इंसान के रूप में प्रत्येक स्त्री पुरुष बाल युवा बूढे सभी को एक अनजानी सी अज्ञात सी तलाश है । हमेशा ही ऐसा लगता है । पता नहीं कुछ खो सा गया है । जिसे हम जन्म से जन्म से खोज रहे हैं । पर ये क्या खोया हुआ है । ये हमको भी नहीं मालूम रहता ।
कभी कभी किसी बात में भी मन नहीं लगता । तब मैं एक सिगरेट सुलगाता हूँ । और कमरे की 5 फ़ुट लम्बी और 4 फ़ुट ऊँची बङी खिङकी से देर तक बाहर देखता रहता हूँ । बाहर की रचना कुछ ऐसी है । मानों खिङकी के बाद ही जंगल हो । लगभग 300 मीटर बाद मकान हैं । पर बीच में खङे वृक्षों से कुछ इस तरह छिप गये हैं । जैसे दूर तक जंगल ही जंगल हो । यह दृश्य दिल को बङा सकून सा पहुँचाता है । और किसी दरवाजे के समान बङी खिङकी खुले में होने का अहसास सा देती है ।
योगियों को रात में जागना ही होता है । इसी खिङकी से ठीक लगा हुआ मेरा तखत बिछा हुआ है । खूबसूरत काली रात में खिङकी से झाँकता चन्द्रमा और चमकते तारे मानों मुझे दिलासा देते हैं - उदास मत होओ । हम तुम्हारे साथ है । फ़िर मैं उन्हें देर तक धीरे धीरे आगे बङते हुये देखता रहता हूँ । मुझे पीछे  छोङते  हुये वे भी अन्ततः उदास  होकर चले जाते हैं ।
और इसी तरह एक दिन सभी साथी जिन्दगी के किसी न किसी मोङ पर साथ छोङकर चले जाते हैं । समय का पहिया कभी किसी के लिये रुकता नहीं । समय के इस रथ

में कुछ देर के लिये कभी किसी का कभी किसी का साथ मिलता है । और फ़िर किसी न किसी जगह वे साथ छोङ ही देते हैं । तब शेष रह जाती हैं । बस उनकी यादें । खट्टी मीठी यादें । जिन्दगी के रंग अजीब । शुक्र है बोरोलीन करीब ।
इसीलिये उदासी शायद बहुत महत्वपूर्ण है । वो यादों में ही सही बिछङों से मिला देती है । पेङों के झुरमुट के बीच से खूबसूरत लङकियाँ महिलायें गुजरती हैं  - बेटा ! मन में लड्डू फ़ूटा । अभी एक लड्डू की मिठास खत्म नहीं हुयी । तब तक कोई और गुजरती है - बेटा ! मन में एक और लड्डू फ़ूटा । एक रुपये में दो दो लड्डू ।
काश ! जिन्दगी का निर्माण इस तरह हुआ होता । मन में हमेशा लड्डू ही फ़ूटते रहते । पर ऐसे भी कुछ दिन जिन्दगी में आते हैं । वे बचपन के दिन और स्कूल के दिन होते हैं । कैसे थे - मेरे स्कूल के दिन ?

1979..( मेरी उमर साढे 9 साल ) मैं 7 वी कक्षा में था । हमारा स्कूल जूनियर हाई स्कूल और मिडिल स्कूल के नाम से प्रसिद्ध था । यह एक कस्बे में था । और शहर से 2 किमी बाहर था । लङके लङकियाँ साथ साथ ही पढते थे । उन दिनों स्कूल कालेज की संख्याँ बहुत कम होती थी । और प्राइवेट तो लगभग होते ही नहीं थे ।
इस स्कूल में मेरे मित्र के रूप में मुजम्मिल अली । ऊदल सिंह चौहान । स्वदेश गुप्ता । संजय आदि खास मित्र थे । लङकियों में हेमा । रानी । फ़ूलमाला । पुष्पा । नीलम । सलमा आदि गर्लफ़्रेंड थी । संजय कहीं बाहर केरला साइड से आया था । उसकी माम की वहाँ पोस्टिंग हुयी थी । उसे फ़िल्मों का बहुत शौक था । वह बहुत मोटा था । और सब उसको मोटा कहकर ही बुलाते थे । जबकि हम दोस्त लङके दुबले थे । और उसके मैटर से शायद हम दो या फ़िर तीन भी बन जाते ।
उन दिनों संजय शुरू शुरू में हमारा दोस्त नहीं था । और नया नया ही स्कूल में भरती हुआ था । उस समय  " शोले " फ़िल्म का जबरदस्त बोलबाला चल रहा था । और वह तीन चार बार शोले देख आया था । गब्बर सिंह उसके सिर चढकर बोलता था । अब वह अपनी गब्बरी किस पर दिखाये । लिहाजा उसने हम तीन मुजम्मिल ऊदल और मुझे ही छाँट लिया । मुजम्मिल हमारी अपेक्षा तगङा था । अतः वह उससे कुछ कुछ मन ही मन डरता था । और मैं सबसे छोटा और दुर्बल भी था । इसका एक कारण ये भी था । मेरी शिक्षिका माँ ने उन दिनों जब बच्चे 5 या 7 और 8 साल की उमर तक कक्षा 1 में एडमिशन लेते थे । मुझे ढाई साल की उमर में ही कक्षा 1 पास करवा दिया । और चालाकी दिखाते हुये मेरी उमर भी 1 साल कम लिखवायी ।

खैर..उस साले हाथी ब्रान्ड मोटे ने खास मुझ लिटिल स्टुवर्ट  को ही छाँट लिया । मैं उससे इतना अधिक आतंकित था कि उसको देखते ही मुझे सू सू आने लगती थी । और तब उसकी निगाहों से बचने के लिये मैं बच्चों के पीछे छुपने की असफ़ल सी कोशिश करता ।
उन दिनों स्कूलों में कुर्सियाँ नहीं होती थी । हम टाट पर बैठते थे । वह मोटा सीधा आकर खङे खङे ही मुझे और ऊदले को पैर की ठोकर से मारता । और कहता - कितने आदमी थे । वो दो थे । और तुम तीन । फ़िर भी वापस आ गये । खाली हाथ । इसकी सजा मिलेगी । बरोबर मिलेगी । फ़िर वह बालपेन निकालता हुआ पिस्तौल की तरह दिखाता । और पूछता - कितनी गोली हैं इसके अन्दर ?
मैं अक्सर सोचता । इससे अच्छा तो ये कमीना हमें गोली ही मार दे । पर रोज रोज ही उस मोटे से पिटना । और

उसके गब्बरी डायलाग सुनना । मानों हमारी किस्मत बन चुका था । वह मुझे और ऊदले को ही मारता था । मुजम्मिल बेचारा मजबूर सा उसकी ऐलीफ़ेंटा बाडी को देखकर चाह कर भी हमारी कोई सहायता नहीं कर पाता था ।
समझ में नही आता था कि - इसका क्या उपाय करें ? या ऐसे ही रोज रोज पिटते रहें । पर हर चीज का उपाय होता है । मोटे का भी उपाय था ।... जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारो । मैं नहीं कहता । किताबों में लिखा है यारो । हम सबको रोज दस बीस पैसे स्कूल के लिये पाकेट मनी मिलता था । हमने और ऊदल ने शेयर मनी भगवान जी को 50 पैसे का परसाद बोल दिया । और मन्नत माँगी -  भगवान जी ! बस साला ये मोटा मर ही जाय ।.. एक आयडिया जो जिन्दगी बदल दे । फ़िलिप्स - आओ बनायें बेहतर कल ।

वास्तव में भगवान ने हमारी सुन ली । और मोटा मर गया । खुशी खुशी भी मगर बेमन से 50 पैसे का परसाद चङाया । क्योंकि चाट खाने को बहुत मुश्किल से पैसे मिलते थे ।.. आज की बचत । कल की सुरक्षा । L.I.C जीवन बीमा पालिसी ।
मगर ये खुशी सिर्फ़ तीन दिन ही रही । चौथे दिन मोटा फ़िर स्कूल आ गया । क्यों बेऽऽ ! वो मोटी आवाज में ठोकर मारता हुआ बोला - कितने आदमी थे ?
दरअसल वो मरा नहीं था । अपनी माम के साथ बाहर चला गया था । भगवान जी ने हमारे साथ बङा धोखा किया था । मुफ़्त में परसाद खा गये । काम भी किया नहीं । वैसे हम भी कम चालाक नहीं थे । बस थोङा सा उनके मुँह से चिपटा दिया । और बाकी का खुद ही हजम कर गये । फ़ालतू पब्लिक को क्या बाँटना । मेहनत की कमाई थी । खैर.. हमारी  50 पैसे की भारी पूँजी भी डूब गयी । फ़िर से पिटने लगे ।


तब एक दिन हम तीनों ने आतंकवादी प्लान बनाया । जिसके अनुसार हम तीनों को मोटे पर एक साथ बङा हमला करना था । मैंने उसको बस्ता घुमाकर मारने का डरपोक वाला काम लिया । मुजम्मिल ने घूँसा । और साहसी ऊदले ने खतरनाक वैपन...?
हम तीनों उस दिन क्लास में नहीं गये । मोटे को हमें मारे बिना उसकी रोटी नहीं पचती थी । पर उसे नहीं मालूम था । हम आज AK 47 लेकर तैयार खङे हैं । उसने हमें खोज लिया । और पास आकर - कितने आदमी..?
ऊदले ने पहले से तैयार खुला पेन निब की साइड से उसके पेट में भौंक दिया । और बहुत तेजी से बोला - साले ! तेरी मम्मी के चक्कू से दूध काट लूँगा । ( यह बात उसने संजय की मम्मी यानी आँटी के साउथ इण्डियन बङे आकार शरीर बनाबट से प्रभावित बालमन से घोर बदला लेने के उद्देश्य से कही थी । या कहिये उसके मन की भावना हमले के समय स्वतः निकली थी । )


मैं बहुत डरपोक था । और हमले से पहले ही कल्पना करने लगा था कि मैंने मोटे को बस्ता मारा । और वह गुस्से में मेरे पेट पर बैठ गया है । अतः उसी डर भाव की हङबङाहट में मैंने बस्ता घुमाकर मोटे को मारा । जो उसके बजाय ऊदले को लगा ।
हालांकि अप्रत्याशित हमले से घबराया और नोकीला निब पेट में घुसते ही मोटा भैऽऽ भैऽऽ करता हुआ जमीन पर गिरकर मोटी बेसुरी आवाज में रोने लगा । पर उसका डर इतना ज्यादा था कि - ये सोचते हुये वो हमें पकङने भागता हुआ पीछे पीछे ही आ रहा है । हम तेजी से बिना पीछे देखे स्कूल से भाग गये ।
मोटा जल्दी ही संभल गया । और उसे हमें पिटवाने का बहुत बङा मुद्दा मिल गया । उसने हेडमास्टर के पास जहाँ उस वक्त सभी मास्टर बैठे थे । जाकर कहा - ऊदला ने मुझे निब मारा । और कहा । तेरी मम्मी के चक्कू से दूध काट लूँगा । अपनी बात वह गोल कर गया ।
उसके बाद हम तीनों दो दिन स्कूल नहीं गये । जबकि सभी मास्टर हमारी बैचेनी से प्रतीक्षा कर रहे थे । तब

अर्जुन सिंह उर्फ़ वाणाधारी नाम के शिक्षक मेरी मम्मी को बाजार में मिल गये । और बोले - क्या बात है । राजीव स्कूल नहीं आ रहा ? तबियत खराब है क्या ?
मम्मी हैरान रह गयीं । दरअसल हम तीनों घर से तो स्कूल चले आते थे । पर मोटे और उसकी शिकायत के डर से इधर उधर घूमते हुये स्कूल का टाइम पास कर देते थे । स्कूल नहीं जाते थे ।
संयोग ऐसा बना । हमसे बैठा कर प्यार से सब बात पूछी गयी । हमारे अभिभावक हमें स्कूल खुद पहुँचाने आये । मोटे को खूब डाँट पङी । और हमारी दोस्ती करवा कर उससे हाथ मिलवाया गया । अभिभावकों के सामने तो मिडिल स्कूल के अध्यापक शिष्टता शालीनता से पंचायत निबटाते रहे । पर उनके जाते ही हम तीनों अभियुक्तों और संजय को बुलाया गया । हम तीनों के मुँह उतर गये । Fundament पर डण्डे की कल्पना खुद ब खुद होने लगी ।
सभी मास्टर एक साथ ही बैठे थे । वाणाधारी ने ऊदले को लक्ष्य कर पूछा - ऊदल तूने क्या कहा था ?
बङी मुश्किल से झेंपता हुआ ऊदला नीची नजर करके बोल सका - तेरी मम्मी के चक्कू से दूध काट लूँगा ।

सब मास्टरों ने जोरदार ठहाका लगाया । और फ़िर लगातार हँसते हुये हम बच्चों से घुमा फ़िराकर बारबार वही बात पूछते हुये फ़िर से ऊदल से कहते - तब तूने क्या कहा ? और उसके बताने पर फ़िर से ठहाका लगाते ।
हमें समझ नहीं आ रहा था । अध्यापकों को किस बात में मजा आ रहा था ? सब बारबार खूब हँसते । चतुर चूतिया संजय भी खूब हँस रहा था । मानों उसके फ़ेवर में बात हो रही हो । फ़िर तो ऊदला हीरो ही बन गया । पढाने से बोर हुये शिक्षक उसको देखते ही बुला लेते । और कहते - ऊदल ! वो बात मैं भूल गया । तूने संजय की मम्मी के लिये क्या कहा था ? फ़िर से बताना । उसके मासूम मुँह से वह बात उन्हें बहुत अच्छी लगती ।
संजय दिल का बुरा नहीं था । आण्टी का स्वभाव भी बहुत अच्छा था । दरअसल इस तरह वह हमारे साथ दोस्ती करना चाहता था । पर हम खामखाह ही उससे डर गये थे । बाद में पता चला । ये मोटा तो साला केवल ढोल की पोल ही था । हम उसके गुदगुदे पेट को खूब नोचते । हाथ फ़िराते । उसको गुदगुदी बहुत होती थी । जरा सा गुदगुदाते ही वह जमीन पर हँसता हुआ लोट पोट होकर पसर जाता था । और मोटी आवाज में हँसता था । उससे डरने लङने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी । महज गुद्गुदी करने से ही वह ..हैऽऽ हैऽऽ करता हुआ चारों खाने चित्त हो जाता था । बाद में हम चारों बहुत अच्छे दोस्त बन गये ।
आज मुझे उन सबकी उन दिनों की फ़िर से याद आ रही थी । न जाने कहाँ होंगे । मेरे बचपन के दोस्त । कोई चार साल पहले उस शहर के एक परिचित से मुलाकात हुयी थी । उसने बताया कि आण्टी ( संजय की मम्मी ) अभी भी वहीं हैं । पर संजय बोम्बे चला गया है । और अपने फ़िल्मी शौक के चलते वह फ़िल्मों में छोटी छोटी सहायक भूमिकायें करता हुआ कुछ सम्बन्धित कार्य भी कर रहा है ।
संजय ! तू जहाँ कहीं भी है । भगवान तुझे खुश रखे । आय लव यू वेरी मच यार । सच तेरी अब भी बहुत याद आती है ।.. हम भी अगर बच्चे होते । नाम हमारा होता गबलू बबलू । और खाने को मिलते लड्डू । दुनियाँ वाले कहते । हैप्पी बर्थ डे टू यू । हैप्पी बर्थ डे टू यू ।
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स्कूल से जुङी बहुत सी यादें हैं । जो आपको गुदगुदायेंगी । मिलते हैं ब्रेक के बाद । तब तक नो वेट ।
- आप सबके अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।

22 सितंबर 2011

अनंत जन्म से आप चल रहे हैं

स्वयं की सत्ता - न तो प्रतिभा की अंतिम अवस्था है । 1 जन्म काफी नहीं है । अनेक जन्म लग जाते हैं । तब प्रतिभा पकती है । और कोई व्यक्ति अनंत जन्मों तक अगर सतत प्रयास करे तो ही । अन्यथा कई बार प्रयास छूट जाता है । अंतराल आ जाते है । जो पाया था । वह भी खो जाता है । भटक जाता है । फिर फिर पाना होता है । अगर सतत प्रयास चलता रहे । तो अनंत जन्म लगते है । तब समाधि उपलब्ध होती है । इससे घबड़ा मत जाना । इससे बैठ मत जाना । पत्थर के किनारे कि अब क्या होगा ? अनंत जन्मों से आप चल ही रहे हो । घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है । आ गया हो वक्त । तो जब कोई कहता है कि 1 ही कोस दूर । तो हो सकता है कि आपके लिए 1 ही कोस बचा हो । क्योंकि कोई आज की यात्रा नहीं है । अनंत जन्म से आप चल रहे हैं । इस क्षण भी ध्यान घटित हो सकता है । अगर पीछे की परिपक्वता साथ हो । अगर पीछे कुछ किया हो । कोई बीज बोए हों । तो फसल इस क्षण भी काटी जा सकती है । इसलिए भयभीत होने
की कोई जरूरत नहीं है । और न भी पीछे कुछ किया हो । तो भी बैठ जाने से कुछ हल नहीं है । कुछ करें । ताकि आगे कुछ हो सकें ।
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गुंजन - ध्यान । गुंजन करना बहुत सहयोगी हो सकता है । और इसे आप कभी भी कर सकते हैं । कम से कम दिन में 1 बार इसे करें । अगर आप दिन में 2 बार कर सकें । तो अच्छा होगा । यह इतना अदभुत अंतर संगीत है कि यह आपके पूरे प्राणों में शांति ला सकता है । तब आपके संघर्षरत अंग 1 लय में आने लगते हैं । और आप बस शांत बैठेंगे । और आप 1 सूक्ष्म संगीत को । 1 भीतरी नाद को । 1 प्रकार की गुंजन को सुन सकेंगे । सब कुछ इतने अच्छे ढ़ंग से चल रहा है । जैसे कि 1 बिलकुल ठीक ढ़ंग से कार्य करती कार का इंजन 1 खास लय में गुंजन करता हो । 1 अच्छे ड्राइवर को तुरंत पता चल जाता है । अगर जरा सी भी गड़बड़ी हो । यात्रियों को चाहे इस बारे में पता न लगे । लेकिन अच्छा ड्राइवर तुरन्त जान लेता है । जैसे ही इंजन की आवाज बदलती है । तब इंजन की आवाज लयबद्ध नहीं रहती है । कुछ नई आवाज आ रही है । वैसे ही अपने अंतर नाद से अच्छी तरह परिचित व्यक्ति धीरे धीरे अनुभव करने लगता है कि कब चीजें गलत जा रही है । यदि आपने ज्यादा भोजन ले लिया है । तो आप देखेंगे कि आपका भीतरी छंद चूक रहा है । और धीरे धीरे आपको चुनना पड़ेगा । या तो ज्यादा भोजन लें । या भीतरी छंद को सम्हालें । और भीतरी छंद इतना अनमोल, इतना दिव्य, 1 ऐसा आनंद है कि ज्यादा खाने की कौन चिंता करता है । और बिना किसी डाइटिंग के प्रयास के आप पाएंगे कि आप बहुत ही संतुलित ढ़ंग से भोजन ले रहे हैं । तब भीतर का छंद और भी सम स्वर हो जाता है । और आप स्पष्ट देख सकेंगे कि कौन से आहार आपके छंद में बाधा ड़ालते है । आप कुछ भारी भोजन लेते हैं । और वह बहुत देर तक पाचन तंत्र में पडा रहता है । तब भीतर का छंद उतना लयबद्ध नहीं रहता । 1 बार भीतर का छंद अनुभव में आ जाएं । तो आप जान सकेंगे कि कब कामवासना उठ रही है ? कब नहीं उठ रही है । और अगर पति पत्नी दोनों ही भीतर के छंद से जी रहे हों । तो आप चकित हो जाएंगे कि 2 व्यक्तियों के बीच कितनी गहराई, कितनी लीनता घट सकती है । और कैसे वे धीरे धीरे एक दूसरे कें प्रति संवेदनशील हो जाते हैं । कैसे वे महसूस करने लगते है कि कब दूसरा उदास है । कहने की भी कोई आवश्यकता नहीं होती । जब पति थका होता है । तो पत्नी सहज ही जान जाती है । क्योंकि दोनों 1 ही वेव लेंथ पर जी रहे हैं । 1 ही तरंग उन्हें आंदोलित करती है । ओशो
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बुद्ध 1 जंगल से गुजर रहे थे । रास्ता भटक गये । संगी साथी भिक्षु भूखे प्यासे थे । घनी दोपहर हो गई । जंगल के रास्ते में पानी भी कहीं नजर नहीं आ रहा था । जंगल का रास्ता किधर जाना है । कुछ मालूम नहीं पड़ रहा था । कोई गांव पास नहीं दिखाई दे रहा । इतनी देर में 1 आदमी आता हुआ मिला । बुद्ध के शिष्य आनंद ने पूछा - गांव कितनी दूर है ? वह आदमी कहता है - बस 2 मील, 1 कोस । 1 कोस चलने के बाद गांव नहीं आया । समझ में कुछ नहीं आ रहा था कहां जाये । फिर दूसरा आदमी आता हुआ मिला । तब आनंद ने उससे पूछा कि - भाई गांव कितनी दूर है । उसने भी कहा कि बस 2 मील 1 कोस । आनंद को थोड़ी बेचैनी हुई । 2 कोस भी ज्यादा चल लिए । पर गांव को कोई नामोनिशान नजर नहीं आ रहा है । फिर 1 अब तो सांझ भी होने वाली है । सूर्य भी अस्ताचल की और चल दिया है । जंगली जानवरों की हंकार भी सुनाई देने लगी है । कुछ ही देर में अंधेरा घिर जायेगा । पर न जाने गांव क्यों नहीं आ रहा । भूख प्यास भी बहुत लगी है । थकावट भी हो रही है । सुबह मुंह अंधेरे के चले हैं । पूरा दिन गुजर गया । इतनी देर में 1 लकड़हारा मिला । और उससे आनंद ने पूछा - भाई गांव कितनी दूरी पर है ? वह कहता है - बस 2 मील, 1 कोस । आनंद खड़ा हो जाता है । वह कहता है - यह किस तरह की यात्रा है । यह 1 कोस कभी खत्म भी होगा । तब भगवान बुद्ध आनंद की झुंझलाहट देख कर हंसे । और कहने लगे कि - आनंद तू खुश हो । कम से कम 1 कोस से ज्यादा तो नहीं बढ़ता गांव । इतना क्या कम है । वह गांव 1 कोस पर ठहरा हुआ है । उससे ज्यादा हो जाये । तो तू कितना घबरा जाता । हमने जितना था । उससे खोया नहीं है । इतना पक्का है । हम जहां थे । कम से कम वही स्थिर तो है । वहां से पीछे तो नहीं हटे । और ये लोग कितने भले है । ये कितने प्रेम पूर्ण हैं । 1 कोस तक तुम चल सको । फिर अगले 1 कोस को बताते है । अगर यह कह देते कि - 10 कोस हैं । तो तुम्हारी हिम्मत ही टूट जाती । ये कितने भले और समझदार लोग हैं । मैं कहता हूं । 1 कोस यह लंबी यात्रा है । पर 1-1 कोस चलकर करोड़ो मील पर कर जाती है । ये तुम्हारे चेहरे को देखकर कहते हैं । ये दयावान लोग हैं । 1 को से इनका कोई लेना देना नहीं है । अनंत यात्रा । लेकिन काफी समय लगता है । क्योंकि जितनी महा प्रतिभा की खोज हो । उतनी ही प्रौढ़ता में समय लगता है । इसे जरा समझें । इसे वैज्ञानिक भी स्वीकार करते है । ओशो

21 सितंबर 2011

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई - मेरी भङास

मैं जब भी कभी अपने बृहद धार्मिक अध्ययन के मद्देनजर चार प्रमुख धर्मों हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई के विभिन्न पहलुओं और इन धर्मों से जुङे लोगों की मानसिकता और आचरण पर नजर डालता हूँ । तो उसके परिणाम मेरे लिये भारी हैरतअंगेज ही होते हैं । मुसलमान और ईसाई धर्म को मानने वाले लोगों या फ़िर संस्कार वश इनमें जन्में लोगों के पास कुरआन और बाइबिल जैसे दो मुख्य गृन्थ ही हैं ।
और जब कभी मैंने इन गृन्थों को किसी जाति धर्म का होने के बजाय एक इंसान होकर उत्सुकतावश हिन्दू धर्म ग्रन्थों के तुलनात्मक स्तर पर पढा है । तो मुझे इनमें कोई खास रुचिकर ज्ञानवर्धक जीवन से जुङा आत्मा या स्रूष्टि के रहस्य बताने वाला । कोई खास मैटर नजर नहीं आया । इस बात का कोई अर्थ निकालते समय जल्दबाजी के बजाय - हिन्दू धर्म ग्रन्थों के तुलनात्मक स्तर पर..भाव पर ध्यान दें ।
बात को यहीं पर और भी स्पष्ट करने के लिये मैं न सिर्फ़ हिन्दूओं की एक विश्व लोकप्रिय श्रीमद भगवत गीता । जो उपलब्ध सन्तमत ज्ञान के तुलनात्मक मेरी नजर में बहुत अधिक खास नहीं है । और गोस्वामी तुलसीदास को माध्यम बनाकर । उनके द्वारा प्रकट हुआ आत्मज्ञान का आम बोली में सरल और सहज प्रस्तुति वाला श्री रामचरित मानस ही इन दो किताबों पर बहुत भारी पङता है । गीता बहुत छोटी पुस्तक हैं । जिसमें सिर्फ़ 18 अध्याय है । और इसको जीवन या आत्मा का सार ज्ञान कहा गया है । मतलब सिर्फ़ इसको ही भली प्रकार पढकर आप - मैं कौन हूँ ? जैसे महाप्रश्न का उत्तर - मैं एक शुद्ध चैतन्य शाश्वत अमर अजर अविनाशी आत्मा हूँ । बहुत सरलता से भली प्रकार जान जाते हैं । और फ़िर इसको प्रयोगात्मक तरीके से जानने और पाने के लिये तैयार हो जाते हैं । गीता इसके लिये आपको तरीका भी बताती है । और फ़िर कहती हैं - इसे भली प्रकार पाने के लिये तू किसी तत्वज्ञानी की शरण में जा । वही तुझ पर प्रसन्न होकर तुझे ये ज्ञान देंगे ।

तो मेरे कहने का मतलब है । बहुत छोटी सी और मूल्य के दृष्टिकोण से भी सस्ती गीता आपको कितना बङा रहस्य और मानव जीवन के परम लक्ष्य की और चेताती हुयी अग्रसर करती है ।
इसके बाद तुलसी के रामचरित मानस की बात करें । तो मैंने आपसे हमेशा ही कहा है । इसमें पहला बालकाण्ड और सबसे अन्तिम उत्तरकाण्ड में ही आत्मज्ञान का गूढ रहस्य छिपा हुआ है । तात्पर्य यह कि दशरथ पुत्र राम की लम्बी चौङी कथा आपको पढने की अधिक आवश्यकता नहीं । रामचरित मानस के ही अरण्य काण्ड में और किष्किन्धा काण्ड में राम का भीलनी शबरी से मिलाप और हनुमान सुग्रीव से भेंट आदि में कुछ प्रसंग अलौकिक ज्ञान से भरपूर और आत्मिक रस से ओतप्रोत हैं । रामचरित मानस के अन्य अध्यायों में भी ऐसे उदाहरण जगह जगह हैं । जो आपको अनोखी शान्ति मिठास और अलौकिक रस का आभास कराते हैं ।

हिन्दुओं की इन लोकप्रिय महज दो पुस्तकों के उदाहरण देने के पीछे मेरी मंशा यही है कि - जब जब मैंने कुरआन और बाइबिल को पढकर उनमें ऐसी ही कोई मिठास तलाश करने की कोशिश की । तो मुझे सिर्फ़ एक ही चीज मिली - सिरदर्द । अजीब सी उलझाऊ स्टायल शैली । बात को घुमाकर कहने की कोशिश । और सिर्फ़ एक ही बात साबित करना कि - यही किताब श्रेष्ठ है । इससे जुङा व्यक्तित्व ही श्रेष्ठ है । और केवल यही एकमात्र परम सत्य है । मुझे हैरानी है कि मैंने तमाम हिन्दू ग्रन्थों में यह तीनों चीजें कहीं नहीं देखी । हालांकि अल्प अध्ययन से आपको हिन्दू धर्म ग्रन्थों में भी ऐसा ही भृम हो सकता है । जब आप विष्णु । शंकर या अन्य शक्तियों से सम्बन्धित पुराण etc का अध्ययन करेंगे । तो आपको भी ऐसा लगेगा कि ये गृन्थ आपस में ही मतभेद रखते हैं । पर बाद में विशद अध्ययन आपकी ये धारणा दूर कर देगा । क्योंकि वहाँ उनको सर्वोपरि या प्रमुख उस स्थिति के अनुसार 


बताया गया है । जबकि आगे के पन्ने पलटते ही वह शक्ति भी आपको उच्च शक्तियों से नतमस्तक नजर आयेगी ।
अब मुझे ईसाई या मुस्लिमों को लेकर ताज्जुब इस बात का होता है कि वे अपने धार्मिक ज्ञान को मेरी तरह जाति धर्म से अलग हटकर समझने की कोशिश करते हैं । या चाशनी में बैठी हुयी मक्खी की तरह उसमें मजूबूरी । संस्कार वश । या पुरातन रूढियों वश लिपटे हुये हैं । क्या उन्होंने अन्य धार्मिक पुस्तकों का बिना किसी पूर्वाग्रह के खुले दिमाग से अध्ययन किया है । शायद नहीं । और ये ही सबसे बङा दुर्भाग्य है कि प्रथ्वी पर इंसान कम हिन्दू मुसलमान सिख ईसाई आदि प्रोग्राम किये रोबोट अधिक हैं ।
चलिये । ईसाईओं और मुसलमानों को लेकर जो भावना मेरे मन में थी । मैंने बता दी ।
अब बात सिखों की हो जाय । मुझे सबसे ज्यादा रोना इसी जाति को लेकर आता है । जैसा कि मैंने पूर्व में कहा भी है । श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के रूप में विश्व में अल्पसंख्यक सिखों के पास सभी ज्ञानों का न सिर्फ़ निचोङ बल्कि

सर्वोच्च ज्ञान मौजूद है । हालांकि मैं ग्रन्थ साहिब की वाणी को जाति विशेष यानी सिखों की ही न मानकर आत्मज्ञानी सन्तों की अधिक मानता हूँ । मतलब मेरे हिसाब से नानक साहब अर्जुन देव जी आदि गुरु सिख धर्म में जन्में अवश्य थे । पर वे सच्चे अर्थों में इंसान थे । रब्ब के असली और सच्चे बन्दे थे । वे अपनी या विरानी जाति को नहीं । बल्कि इंसान को देखते थे । इंसान को मानते थे । उनका धर्म सनातन धर्म था । न कि हिन्दू । मुस्लिम । सिख । ईसाई । यहूदी वगैरह ।
फ़िर भी रोना इस बात का है कि तमाम बङी बङी पोथियों को हटाकर । परीक्षा के गैस पेपर या माडल पेपर की तरह तैयार । या किसी फ़ल को धोना छीलना काटना आदि जैसी तमाम जहमत को हटाकर । सीधा एकदम सिखों के हाथ में मौजूद । जूस के ताजे गिलास की तरह तुरन्त ताकत देने को तैयार । शायद हर सिख के घर में मौजूद । श्री गुरु ग्रन्थ साहब भी आज महत्वहीन सी हो गयी है । शायद अर्जुन देव जी जैसी पवित्र आत्मा को रोना ही आता होगा । जो इस अमूल्य ज्ञान के बाद भी सिख भटके हुये हैं । जिससे ऊपर कहीं कोई 


ज्ञान है ही नहीं । सिखों में यह ज्ञान परम्परा कब से लुप्त सी हुयी । और उन्होंने भी हिन्दुओं की तरह मन्दिर जाकर मत्था टेकना । ईसाई मुस्लिम की तरह मस्जिद या गुरुद्वारा जाना ही सब कुछ मान लिया । इस पर फ़िर से विचार करना होगा । आप अर्जुन देव जी को पढिये । जब सिखों के समूह के समूह न सिर्फ़ सुबह के चार बजे से ही सतसंग का आनन्द उठाते थे । शाम को भी सतसंग होता था । ज्यादातर लोगों के पास सतनाम दीक्षा थी । और वे आनन्द से सुमरन करते हुये मोक्ष और परलोक को भी सुधारते थे । और आज के समय के बजाय खुद को सुरक्षित और सतलोक का वासी मानते जानते  थे ।
ये सिखों के प्रति मेरे मन की भङास थी ।
अब सबसे बाद में बात हिन्दुओं की करते हैं । मैं इस धर्म के लोगों का अधिक दोष नहीं मानता । तमाम धार्मिक ग्रन्थों । प्रचलित विभिन्न पूजा पाठों । 33 करोङ देवी देवताओं । तीन प्रमुख देवताओं । 9 प्रमुख देवियों । 2 प्रमुख अवतारों । अन्य अनेक अवतारों । हनुमान आदि जैसे भक्तों की पूजा । शनि राहु केतु जैसे ग्रहों की भी पूजा आदि की भारी धार्मिक भूल भुलैया में हिन्दू मानस संस्कार और परम्परा वश भटक गया है । मतिभृम का शिकार है । तो उसका कोई खास दोष नहीं है । अच्छे अच्छे इस स्थिति में भटक सकते हैं । और कोई भी लक्ष्य चुनने में कठिनाई महसूस कर सकते हैं ।
यहाँ ध्यान रहे । ये चारों धर्मों के प्रति मेरा नजरिया सामान्य लोगों को लेकर ही हैं । आम जनता को लेकर ही है । बाकी असाधारण । विशेष । और अति विशेष लोग हर जाति धर्म में सदा होते रहे हैं । और होते रहेंगे । क्योंकि सनातन धर्म या खास ज्ञान कभी किसी की बपौती नहीं होता । आज बस इतना ही ।
आप सबके अन्तर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम । सतनाम वाहिगुरु । 

19 सितंबर 2011

श्री महाराज जी दिल्ली - चण्डीगढ में

कल शाम जब " प्रसून का इंसाफ़ " की प्रूफ़ रीडिंग कर रहा था । और उसको फ़ायनल टच देते हुये फ़िनिशिंग तक ले आया था । तभी अचानक हमारे गुरुभाई कुलदीप जी का फ़ोन आया ( कुलदीप जी का नम्बर 0 98883 21417 ) कि श्री महाराज जी कल 20 sept 2011 को दिल्ली पहुँचेंगे । जहाँ किन्हीं कर्नल साहब के घर ठहरेंगे । दिल्ली के आसपास के लोगों ने कई बार मुझसे श्री महाराज जी के दिल्ली आने के बारे में पूछा था । पर अब तक एक निश्चित संयोग नहीं बन पाया ।
हालांकि इस बार श्री महाराज जी ने मुझे लगभग 8 दिन पहले ही अनुमान बताया था कि वे दिल्ली जा सकते हैं । जहाँ कर्नल साहब की पहले से दीक्षित बेटी ध्यान क्रिया को improve करना चाहती हैं । और तभी मैं यह सूचना प्रकाशित भी करना चाहता था ।
लेकिन फ़िर मैंने सोचा । अभी निश्चित नहीं है । अतः निश्चित हो जाने पर ही करूँगा । इसके बाद मैं बेहद बिजी हो गया । यहाँ तक कि श्री महाराज जी से बात भी नहीं हो पायी । ऐसा कोई न कोई झंझट लगा ही रहा । तब कल शाम कुलदीप जी के ही याद दिलाने पर मुझे याद आया कि श्री महाराज जी दिल्ली जाने वाले थे ।

खैर.. अभी भी मेरी श्री महाराज जी से बात नहीं हुयी है । ( श्री महाराज जी का नम्बर ( 0 ) 96398 92934 ) पर जो लोग उनके दिल्ली आगमन के बारे में अक्सर पूछते रहे हैं । वे श्री कुलदीप जी से या सीधे श्री महाराज जी से उनके रुकने आदि के स्थान के बारे में जानकारी ले सकते हैं । और बात करने के उपरान्त अपनी जिज्ञासाओं और शंका समाधान या आत्मज्ञान या हँस दीक्षा etc हेतु मिल सकते हैं ।
कुलदीप जी के ही अनुसार दिल्ली में दो तीन रुकने के बाद श्री महाराज जी दो दिन के लिये कुलदीप जी के विशेष आमन्त्रण पर उनके घर जीरकपुर चण्डीगढ भी जायेंगे । वहाँ भी बहुत से लोग उनकी प्रतीक्षा में हैं । बस मुझे इतनी ही जानकारी है । इस जानकारी में कोई नयी बात पता चलने पर तदनुसार इसी स्थान पर उसकी सूचना आपको दी जायेगी । धन्यवाद ।
कुलदीप जी से आज ता. 21 sept 2011 को प्राप्त नयी सूचना अनुसार -
जय गुरुदेव जी की । नमस्कार राजीव जी !
श्री महाराज जी शनिवार को सुबह 10 am पर मदन जी के फ़्रेंड के घर रुकेंगे । और फ़िर संडे को 10 या 11 बजे मेरे घर आ जायेंगे । और फ़िर मेरे घर पर रात को रुकने के बाद मंडे को वापिस आगरा के लिये निकल जायेंगे ।
मेरे घर का एड्रेस है - 
House No-B-6 । First Floor । Panchsheel Enclave । Near Kohinoor Dhabha or Ganga Nursery । Zirakpur । Punjab । Chandigarh । फ़ोन न. 0 98883 21417
मदन जी के फ़्रेंड संजीव जी के घर का एड्रेस है - 
Sanjeev Kumar । Village - taufapur । Lalru Mandi se 8 km दूर ।
मदन जी का mobile no है - 75089 24458

16 सितंबर 2011

पुरानी यादें



                                  हमारी फ़ेमिली बायें सबसे छोटे चाचा


                                                          हम 3 भाई बहन



                                                     किस यू आल


                                                        शेम शेम


                                              इतनी भी हीरोगीरी ठीक नहीं ।
 
                      

                                               द्वैत की बातें


                                                      रक्षा बन्धन


                                              अमिताभ मेनिया

मेरे बारे में

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326