29 जुलाई 2011

जब पाप पुण्य भ्रम जारि

मनुष्य की चेतना भीतर से कब स्वस्थ होती है ?
ओशो - ध्यान का पहला अर्थ है कि हम अपने शरीर और स्वयं के प्रति जागना शुरु करें । यह जागरण अगर बढ़ सके । तो आपका मृत्यु भय क्षीण हो जाता है । और जो चिकित्सा शास्त्र मनुष्य को मृत्यु के भय से मुक्त नहीं कर सकता । वह चिकित्सा शास्त्र मनुष्य नाम की बीमारी को कभी भी स्वस्थ नहीं कर सकता । उसे भीतर की चेतना का अहसास शुरु हो जाए । भीतर की चेतना की फीलिंग शुरु हो जाए ।
हमें आमतौर से भीतर की कोई फीलिंग नहीं होती । हमारी सब फीलिंग शरीर की होती है । हाथ की होती है । पैर की होती है । सिर की होती है । ह्रदय की होती है । उसकी नहीं होती । जो मैं हूं । हमारा सारा बोध, हमारा सारी अवेयरनेस घर की होती है । घर में रहने वाले मालिक की नहीं होती । यह बड़ी खतरनाक स्थिति है । क्योंकि कल अगर मकान गिरने लगेगा । तो मैं समझूंगा - मैं गिर रहा हूं । वही मेरी

बीमारी बनेगी । नहीं । अगर मैं यह भी जान लूं कि मैं मकान से अलग हूं । मकान के भीतर हूं । मकान गिर भी जाएगा । फिर भी मैं हो सकता हूं । तो बहुत फर्क पड़ेगा । बहुत बुनियादी फर्क पड़ जाएगा । तब मृत्यु का भय क्षीण हो जाएगा ।
ध्यान के अतिरिक्त मृत्यु का भय कभी भी नहीं काटता ।
तो ध्यान का पहला अर्थ है - अवेयरनेस ऑफ वनसेल्फ ।
हम सदा, जब भी होश में हैं । तो हमारा होश जो है । वह अवेयरनेस अबाउट, किसी चीज के बाबत है सदा । वह कभी अपने बाबत नहीं है । इसीलिए तो हम अकेले बैठें । तो हमको नींद आनी शुरू हो जाती है । क्योंकि वहां क्या करे ? अखबार पढ़े । रेडियो खोलें । तो थोड़ा जागना सा मालूम पड़ता है । अगर एक आदमी को हम बिलकुल अकेले में छोड़ दें । अंधेरा कर दें कमरे में । अंधेरे में इसीलिए नींद आ जाती है आपको । क्योंकि कुछ दिखाई नहीं पड़ता । तो चेतना की कोई जरूरत नहीं रह जाती । कुछ चीज दिखायी पड़ती नहीं । तो अब क्या करे ? सिवाय सोने के कोई उपाय नहीं मालूम पड़ता । अकेले पड़ जाएं । अंधेरा हो । कोई बात करने को न हो । कुछ सोचने को न हो । तो बस आप गए नींद में । और कोई उपाय नहीं है ।
ध्यान रहे । नींद और ध्यान एक अर्थ में समान हैं । एक अर्थ में भिन्न । नींद का मतलब है - आप अकेले हैं । लेकिन सो गए हैं । ध्यान का मतलब है - आप अकेले हैं । लेकिन जागे हुए हैं । बस इतना ही फर्क है । अगर आप अपने अकेलेपन में और अपने भीतर जाग सकते हैं अपने प्रति ।
एक आदमी बुद्ध के सामने बैठा है एक दिन । और अपने पैर का अंगूठा हिला रहा है । बुद्ध ने कहा कि - अंगूठा क्यों हिलाते हो ?
उस आदमी ने कहा - छोड़िए ! ऐसे ही हिलता था । मुझे पता न था ।
बुद्ध ने कहा - तुम्हारा अंगूठा हिले । और तुम्हें पता न हो । अंगूठा किसका है यह । तुम्हारा ही है ?
उसने कहा - मेरा ही है । लेकिन आप भी कहां की बातें कर रहे हैं । आप जो बात करते थे । जारी रखिए ।
बुद्ध ने कहा - वह मैं नहीं करूंगा अब । क्योंकि जिस आदमी से मैं बात कर रहा हूं । वह बेहोश है । पता नहीं तुम 

मेरा सुन भी रहे हो कि नहीं ? उसने कहा - आप भी कैसी बातें कर रहे हैं । अंगूठा हिल रहा है ।
बुद्ध ने कहा - तो अपने अंगूठे के हिलने का आगे से होश रखो । तो उससे दोहरा होश । जो होश में है अंगूठे के प्रति । उसका होश भी पैदा हो जाएगा ।
अवेयरनेस इज़ आलवेज डबल एरोड । अगर हम उसका प्रयोग करें । तो उसका एक तीर तो बाहर की तरफ रह जाएगा । और दूसरा तीर भीतर की तरफ हो जाएगा ।
तो ध्यान का पहला अर्थ है कि हम अपने शरीर और स्वयं के प्रति जागना शुरू करें । यह जागरण अगर बढ़ सके । तो आपका मृत्यु भय क्षीण हो जाता है । और जो चिकित्सा शास्त्र मनुष्य को मृत्यु के भय से मुक्त नहीं कर सकता । वह चिकित्सा-शास्त्र मनुष्य नाम की बीमारी को कभी भी स्वस्थ नहीं कर सकता । हां चिकित्सा शास्त्र कोशिश करता है । वह कोशिश करता है । उम्र लंबी करके । उम्र लंबी करने से सिर्फ मृत्यु की प्रतीक्षा लंबी होती है । और कोई फर्क नहीं पड़ता । और लंबी प्रतीक्षा से छोटी प्रतीक्षा अच्छी है । उम्र लंबी करने से सिर्फ मौत और भी दुखदायी होती चली जाती है ।
क्या आपको अंदाज है कि जिन मुल्कों में चिकित्सा शास्त्र ने लोगों की उम्र ज्यादा बढ़ा दी है । वहां एक नया आंदोलन चल रहा है । वह है - अथनासिया का । वह यह है कि बूढ़े कह रहे हैं कि हमें मरने का अधिकार होना चाहिए संविधान में । क्योंकि आप हमको लटकाए चले जा रहे हैं । और हमको अब जिंदा रहना बहुत कठिन हो गया । आप तो लटका सकते हैं । एक आदमी को आक्सीजन का सिलेंडर रखकर न मालूम कितनी देर तक लटका सकते हैं । और उसको जिंदा रख सकते हैं । लेकिन उसकी जिंदगी मरने से बदतर हो जाएगी ।
अब न मालूम कितने लोग यूरोप और अमेरिका के अस्पतालों में उलटे सीधे शीर्षासन की हालत मे आक्सीजन के सिलेंडरो से बंधे हुए पड़े हैं । उनको मरने का हक नहीं है । वे मरने के हक की मांग कर रहे हैं । मैं मानता हूँ कि आने वाले इस सदी के पूरे होते होते दुनिया के सी सुशिक्षित राष्ट्रों के संविधान में जन्म सिद्ध अधिकारों में मरने का अधिकार जुड़ जाएगा । क्योंकि चिकित्सक को यह हक नहीं हो सकता कि वह किसी आदमी को उसकी इच्छा के विपरीत जिंदा रखे । अब तक तो हक यह नहीं था कि उसकी इच्छा के विपरीत मारे । लेकिन अभी तक जिंदा रखने का उपाय नहीं था । अब है ।
आदमी की उम्र बढ़ाने से मृत्यु का भय कम नहीं होगा । आदमी को स्वस्थ कर देने से जिंदगी ज्यादा सुखी हो जाएगी । लेकिन ज्यादा अभय नहीं होगी । अभय तो सिर्फ एक ही स्थिति में । फियरलेसनेस एक ही स्थिति में आती है कि मुझे भीतर पता चल जाए कि कुछ है । जो मरता ही नहीं । उसके बिना कभी नहीं हो सकता ।
तो ध्यान उस अमरत्व का बोध है । वह जो मेरे भीतर है । वह कभी नहीं मरता है । और वह जो मेरे बाहर है । वह मरता ही है । इसलिए जो बाहर है । उसकी चिकित्सा करो कि वह जितने दिन जिए । सुख से जिए । और वह जो भीतर है । उसका स्मरण करो कि मृत्यु भी द्वार पर खड़ी हो जाए । तो भय न कंपा दे - ओशो

रजनीशवाद जैसी कोई चीज न कभी थी । न है । न होगी । मैं वादों का दुश्मन हूँ । इन्हीं वादों ने दुनिया को बरबाद किया है । आखिर इस्लाम क्या है ? आखिर ईसाइयत क्या है ? आखिर जैनिज्म क्या है ? ये किन्हीं व्यक्तियों की चेष्टाएँ हैं । सारी दुनिया को अपनी लपेट में लेने की । ये सब हार गए । और अपनी हार में सारी दुनिया को गंदगी में पटक गए । मैं कोई ऐसा पाप करने को राजी नहीं हूँ । मैं दुनिया को अपने घेरे में नहीं लेना चाहता । मैं चाहता हूँ कि दुनिया मुझे अपने घेरे में ले ले । भूल जाए मेरा नाम । भूल जाए मेरा पता । अपनी याद करे । मैं अपने पीछे कोई धर्म नहीं छोड़ जाना चाहता हूँ - ओशो ।
सच पूछो तो दिल ही रब का मंदिर है ।
कोई दिल ना टूटे रब दिलोँ के अन्दर है ।
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राबिया अलअदाबिया एक सूफी फकीर औरत गुजरती थी एक रास्ते से । उसने फकीर हसन को एक मस्जिद के सामने हाथ जोड़े खड़े देखा । और जोर से वह फकीर हसन कह रहा था - हे प्रभु ! द्वार खोलो । कबसे पुकारता हूं । कृपा करो । मुझ दीन पर अनुकंपा करो । द्वार खोलो । हसन की आंखों से आंसू बह रहे हैं । राबिया वहां से निकलती थी । वह खड़ी हो गई । हंसने लगी । और उसने कहा - भाई ! मेरे आंख तो खोलो । जरा देखो भी । द्वार बंद कहां है ? द्वार खुला ही है । जरा देखो तो । हसन ने शास्त्रों में पढ़ा था । पढ़ा होगा जीसस का वचन - पूछो । और मिलेगा । खटखटाओ । और खुलेगा । शास्त्र से पढ़ा था । चीखो । पुकारो । आर्त तुम्हारी पुकार हो । तो परमात्मा का द्वार खुलेगा । यह राबिया शास्त्र से पढ़ी हुई नहीं है । इसने देखा कि द्वार परमात्मा का कभी बंद ही नहीं । वह कहने लगी - भाई मेरे ! आंख तो खोलो । नाहक शोरगुल मचा रहे हो । द्वार बंद कब था ? द्वार खुला ही है । अपनी आंख चाहिए ।
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अपने अकेलेपन में आनंद लेना ही ध्यान है । ध्यानी वह है । जो अपने अकेले होने में गहरा उतरता है । यह जानते हुए कि हम अकेले पैदा होते हैं । हम अकेले मरेंगे । और गहरे में हम अकेले जी रहे हैं । तो क्यों नहीं । इसे अनुभव करें कि यह अकेलापन है क्या ? यह हमारा आत्यंतिक स्वभाव है । हमारा अपना होना । हम अकेले पैदा होते हैं । हम अकेले मरते हैं । इन दो वास्तविकताओं के बीच हम साथ होने के हजारों भ्रम पैदा करते हैं । सभी तरह के रिश्ते । दोस्त और दुश्मन । प्रेम और नफरत । देश । वर्ग । धर्म । एक तथ्य कि हम अकेले हैं को टालने के लिए हम सभी तरह की कल्पनाएं पैदा करते हैं । लेकिन जो कुछ भी हम करते हैं । सत्य बदल नहीं सकता । वह ऐसा ही है । और उससे भागने की जगह, श्रेष्ठ ढंग यह है कि इसका आनंद लें - ओशो ।
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इसे ख्याल रखो । अस्तित्व के प्रेम में रहो । और प्रेम श्वास उच्छ्वास की तरह रहे । श्वास लो । छोड़ो । लेकिन ऐसे जैसे प्रेम अंदर आ रहा है । और बाहर जा रहा है । धीरे धीरे हर श्वास के साथ तुम्हें प्रेम का जादू निर्मित करना है । इसे ध्यान बनाओ । जब तुम श्वास छोड़ोगे । ऐसे महसूस करो कि तुम अपना प्रेम अस्तित्व में उंडेल रहे हो । जब तुम सांस ले रहे हो । तो अस्तित्व अपना प्रेम तुममें डाल रहा है । और शीघ्र ही तुम देखोगे कि तुम्हारी श्वास की गुणवत्ता बदल रही है । फिर वह बिलकुल अलग ही हो जाती है । जैसा कि पहले तुमने कभी नहीं जाना था । इसीलिए भारत में हम उसे प्राण या जीवन कहते हैं । सिर्फ श्वास नहीं । वह सिर्फ आक्सीजन नहीं है । कुछ और भी है । स्वयं जीवन ही ।
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इसलिए नीति का सूत्र है कि तुम वही करो दूसरों के साथ । जो तुम चाहते हो कि दूसरे तुम्हारे साथ करें । इसका परमात्मा, मोक्ष, ध्यान से कोई संबंध नहीं । यह सीधी समाज व्यवस्था है ।
धर्म नीति से बहुत ऊपर है । उतने ही ऊपर है । जितना अनीति से ऊपर है । अगर तुम एक त्रिकोण बनाओ । तो नीचे के दो कोण नीति और अनीति के हैं । और ऊपर का शिखर कोण धर्म का है । वह दोनों से बराबर फासले पर है । इसलिए धर्म महाक्रांति है । नीति तो छोटी सी क्रांति है कि - तुम पाप छोड़ो । धर्म महाक्रांति है कि - तुम पुण्य भी छोड़ो । पाप तो छोड़ना ही है । पुण्य भी छोड़ना है । क्योंकि जब तक पकड़ है । तब तक तुम रहोगे । पकड़ छोड़ो । कर्ता का भाव चला जाए । जब पाप पुण्य भ्रम जारि...
जब पाप और पुण्य दोनों के भ्रम जल गए । तब भयो प्रकाश मुरारी । तभी कोई परमात्मा को उपलब्ध होता है - ओशो 
चलती चाकी देख कर दिया कबीरा रोय ।
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय ।
दो पाट = पाप, पुण्य ।
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सब है । फ़िर कुछ नहीं है । सब कुछ है - वो कुछ नहीं है । जो कुछ नहीं है - वो सब कुछ है ।

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