09 जून 2011

तेरा तुझको सौंप दूँ... तो क्या लागे है मेरा ?

सत श्री अकाल जी ! मैं नवरूप कौर । रूप दीदी की छोटी बहन । आशा है कि आप मुझे भूले नही होगे । मैंने अब तक सिर्फ़ 1 बार ही आप को ई-मेल किया था । उसके बाद 1 बार भी ई-मेल नही किया । आप भी सोचते होगे कि इसकी बङी बहन तो बहुत सवाल पूछती थी ।
लेकिन ये छोटी वाली तो धर्म के प्रति कोई भी जिग्यासा नहीं दिखाती । मेरे अब तक कोई भी सवाल न पूछने के कई कारण थे । 1 तो मेरी नय़ी नयी शादी हुई है । शादी को अभी सिर्फ़ कुछ ही महीने हुये है । तो नये घर में । नये वातावरण में । नये लोगों से तालमेल बैठाने में समय तो लगता ही है ।
क्युँ कि अब इन नये रिश्तेदारो में ही सारी जिन्दगी गुजारनी है । माँ बाप की जगह सास ससुर ने ले ली । भाई बहनों की जगह ननद और देवरों ने ले ली । मायके के पडोसियों की जगह अब ससुराल के आसपास के पडोसियों ने ले ली ।
और तो और अब पति जी के मामा । मामी । चाचा । चाची । फ़ूफ़ा । फ़ूफ़ी । मौसा । मौसी साथ में और भी नजदीक दूर के ढेरों नये रिश्तेदार ( ससुराल की तरफ़ से ) फ़िर भी मैं आपका ब्लाग मौका मिलते ही पढती रहती हूँ ।
आपके ब्लाग में कई किस्म की जानकारी है । अब हर बार नयी जानकारी पढने को मिलती है । तो इंसान सवाल पूछ्ना भूल ही जाता है । लेकिन मैं आज आपसे 1 खास बात के बारे में पूछना चाहती हूँ ।
" श्री गुरु गृन्थ साहिब " में सन्त कबीर जी की वाणी भी है । उसमें से मैं कुछ खास पंक्तियों के अर्थ जानना चाहती हूँ ।
वो पंक्तियाँ ये है - मेरा मुझ में कुछ नही । जो कुछ है सो तेरा । तेरा तुझको सौंप दूँ । तो क्या लागे है मेरा । सन्त कबीर जी की वाणी में ये भी खास पंक्तियाँ हैं । जो " श्री गुरु गृन्थ साहिब " में दर्ज है । आप इन पंक्तियों का बिल्कुल सही और स्पष्ट मतलब जरूर अपने ब्लाग में पोस्ट करें । मैं आपकी बहुत आभारी रहूँगी । सत श्री अकाल ।

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सत श्री अकाल ! धन्यवाद नवरूप जी ! आपके बारे में फ़िर से जानकर अच्छा लगा । मैं आपकी हरेक बात से 


अक्षरशः सहमत हूँ । आप ऐसे समय और नये माहौल में भी धार्मिक रुझान बनाये रखती हैं । ये बहुत बङी बात है । आपके परिवार और समाज के प्रति विचार ( इस मेल के अनुसार ) बहुत सुन्दर और उच्च भाव के हैं । जो निश्चित ही आपको एक अच्छे धार्मिक संस्कारी परिवार का होने की खुद गवाही दे रहें हैं ।
मैं खैर किसी का नाम तो नहीं लूँगा ।
पर आप में से बहुत से लोग इतनी विनमृता प्रेम और अपनत्व भाव के साथ अपनी बात को इतनी सुन्दरता के साथ कहते हैं कि मुझे भारत उसकी संस्कृति और खास तौर पर आप जैसी भारत की बेटियों पर गर्व होता है ।
शायद मेरी जानकारी पूरी तरह से सही न हो । फ़िर भी मुझे नहीं लगता कि किसी अखवार । किसी मैगजीन । किसी साइट । किसी ब्लाग पर इस तरह सभी धर्म के लोगों ने एक वैश्विक परिवार की तरह न सिर्फ़ अपने विचार रखे । बल्कि ऐसे माहौल का सबने खुले दिल से स्वागत भी किया ।
निश्चय ही इस शुभ परम्परा का श्री गणेश करने का पूरा श्रेय आपकी दीदी रूप कौर जी को ही है । दूसरे मुझे ऐसा अन्दाजा भी नहीं था कि महिलायें धार्मिक वार्ता में इस कदर रुचि लेंगी । सच पूछो । तो ब्लाग मैंने पुरुषों को ही ध्यान रखकर बनाया था । इसलिये आप सभी का बहुत बहुत आभार ।

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वो पंक्तियाँ ये है - मेरा मुझ में कुछ नही । जो कुछ है सो तेरा । तेरा तुझको सौंप दूँ । तो क्या लागे है मेरा ।
- जिस गीता की पूरे विश्व में प्रसिद्ध फ़ैली हुयी है । वह कबीर के इसी एक दोहे में सिमट गयी है । जो निष्काम कर्म की बात कहता है । इसी बात को कबीर साहब ने अपने भजन -झीनी झीनी बीनी चदरिया .. में भी कहा है । कुछ इस तरह -दास कबीर जतन करि ओढी । ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ।


आत्मा का वास्तव में न कोई भूत है । न भविष्य है । ये वर्तमान ( नित्य ) है । यानी ये न कुछ संग्रह करता है । न त्याग करता है । असल स्थिति में " मैं " यह मिथ्या बोध है । अग्यान है । मेरा मुझ में कुछ नहीं - अर्थात आत्मा में कोई बात नही होती । और अहम भाव एक मिथ्या ( झूठा ) भाव ही तो है । ये बात तो सभी धर्म के लोग और बैग्यानिक भी जानते हैं कि सबसे पहले जब ये ( सृष्टि आदि ) कुछ भी नहीं था । तो सिर्फ़ वही परमात्मा ( सारतत्व ) ही था । और उसी से ये सब हुआ है । तो हम न तब थे । न अब हैं । वही सब रूपों में है । ये अहम से माया सत्ता निर्मित हुयी है । अगर ये सत्य होती । तो इसका कोई अटल सिद्धांत कोई अटल सत्य पता चलता ।
जो कुछ है सो तेरा - कहा जाता है । तू ही तू है । हर शै में बस वही है । मैं और मेरा । तू और तेरा । ये मानना ही माया है । ग्यान में ये माया हट जाती है । हम बस में जाते हैं । ट्रेन में । प्लेन में..बस यात्रा तक के लिये वो सीट और सम्बन्धित सुविधायें होती है । अब हम उसी सीट पर अपना पट्टा ( अधिकार ) समझ लें । तो हमारी भूल ही है ।
ऐसे ही जीवन यात्रा में जो भी - घर । मकान । शरीर । परिवार । सम्बन्धी । सुख । दुख आदि सभी कुछ हमारे कर्मफ़ल अनुसार बर्ताव हेतु मिले हैं । इन पर एक भी क्षण अपना अधिकार मानना बङी भूल है । शरीर से लेकर धन संपत्ति आदि सभी कुछ एक क्षण में नष्ट हो सकता है । इसलिये इनकी आसक्ति करना अग्यान है । जो कुछ है सो तेरा । हम तो मेहमान है । अभी यहाँ व्यवस्था कर । बाद में जहाँ ट्रांसफ़र करे । वहाँ करना । हाँ मैं जो वास्तविक ( आत्मा ) हूँ । उसमें कोई बदलाव नहीं होता । अतः मरते समय । या किसी भी समय - तेरा तुझको सौंप दूँ । तो क्या लागे है मेरा ।
बाबा ( राजीव ) तो नंगा हू हू करता आया था । और राम नाम सत्य है । जानकर ( चार कंधों पर ) नंगा ही चला जायेगा । न कुछ भी लाया । न ले जायेगा । फ़िर काहे का दुख मनाऊँ ?
सार ये कि मैं.. मेरा पन अग्यान है । प्रकृति से शरीर और दूसरी अन्य सभी चीजें बनती हैं । और इसमें आत्मा  कनेक्ट हो जाने से बहुत सी ( मनुष्य़ । देव । जीव आदि ) अन्य चीजें बनती हैं । आत्मा का मतलब ( कारण ) समाप्त । तो प्रकृति रूप ये घरोंदा ( शरीर ) भी समाप्त । बस इसी को जानना है । और ये इसी तरह जानोगे । जब तुच्छ ( संसार की आसक्ति ) को त्यागोगे । तब विराट ( परमात्मा ) की प्राप्ति होगी
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झीनी झीनी बीनी चदरिया । झीनी झीनी बीनी चदरिया ।
काहे कै ताना काहे कै भरनी । कौन तार से बीनी चदरिया ।
इडा पिंगला ताना भरनी । सुखमन तार से बीनी चदरिया ।
आठ कँवल दल चरखा डोलै । पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया ।
जा को सियत मास दस लागे । ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया ।
सो चादर सुर नर मुनि ओढी । ओढि कै मैली कीनी चदरिया ।
दास कबीर जतन करि ओढी । ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326