29 मार्च 2011

सूरा सो पहचानियो जु लरे दीन के हेत ।

बसई मुम्बई निवासिनी दर्शन कौर जी मेरी मित्तर हैं । इस मित्तरता ( आप लोग ये मत सोच लेना कि मुझे ठीक से लिखना भी नहीं आता । सबूत के लिये देखें..मित्र ..मित्रता ) का कारण हैं । खाने पीने की शौकीन और तीर्थ पहाङों पर घूमने की शौकीन दर्शन जी स्वागत बङे दिलोजान से करती हैं । कोई भी मेरे जैसा मुफ़्त खाऊँ..मौज उङाऊँ.. तबियत का इंसान इनका मित्तर होना ही होना है ।

खैर..भाई लोगों मित्रता की एक और वजह भी है । दर्शन जी का स्वभाव से धार्मिक होना । अतः ये अपनी पोस्ट अक्सर गुरुवाणी आदि किसी अच्छी वाणी से शुरू करती हैं । अबकी बार भी हेमकुन्ड यात्रा की समापन पोस्ट दर्शन जी ने नीचे लिखी इन पंक्तियों से की ।


                    गगन दमामा बाजिओ । परिओ नीसाने घाऊ ।
              खेत जु मांडियो सूरमा  । अब जुझन को दाऊ ।
                    सूरा सो पहचानियो । जु लरे दीन के हेत ।
              पुरजा - पुरजा कटी मरे । कबहूँ न छाँङे खेत ।
मेरा दिल इन पंक्तियों को पढकर आनन्द से भर गया । आगे मैंने लेख पढा । और अच्छा भी लगा । परन्तु जिस प्रकार रसगुल्ला खाने के बाद चाय मीठी नहीं लगती । मेरा दिल भी इस सन्तवाणी में ही रमा रहा ।
और मैंने दर्शन बीबी को कमेंट किया ।..बीबी तुसी इसका अर्थ भी बताओ ।
दर्शन जी ने कहा..राजीव जी आप ही बताओ । ये मेरे लिये जन्मदिन का तोहफ़ा होगा ।
तो चलिये । भाई लोगो । जितनी मुझ में अक्ल है । उससे आपको इसका अर्थ बताते हैं ।
..जैसा कि अधिकतर लोग साधुओं की वाणी में छिपे रहस्य या गूढ तत्व को नहीं समझ पाते । और फ़िर उसे कल्पना..रहस्यवाद..या प्रतीक या अतिश्योक्ति का नाम देकर छुट्टी कर देते हैं । और वह दुर्लभ ग्यान पाने से सब वंचित रह जाते हैं ।
आज मैं आपको बता दूँ । सन्तों ने कहीं भी कल्पना या अतिश्योक्ति ( बात को बङा चङाकर कहना ) वाली बात नहीं कही है । बल्कि ज्यों की त्यों कही है । अक्षरशः सत्य कही है । ये बात ऊपर के दोहे के अर्थ से स्पष्ट हो जायेगी । साथ ही किसी भी सन्तवाणी का सही अर्थ आपको समझ में न आया हो । तो..मुझे लिखें । फ़ोन करें । मिलें । आपको जीवन के बाद..मृत्यु के बाद.. के किसी भी अन्य सवाल का जबाब चाहिये । तो भी मुझसे पूछ सकते हैं ।
अब आईये । दोहे का अर्थ करते हैं ।


..गगन दमामा बाजिओ परिओ नीसाने घाऊ ।
शब्दार्थ - आकाश में दमामा ( एक वाध्य यंत्र ) बजा । और घाव पर निशाना बैठा ।
इसका असली मतलब - ये मनुष्य ( आत्मा ) कालपुरुष उसकी त्नी माया ( आदिशक्ति..अष्टांगी कन्या..महा देवी आदि जिसको कहते हैं ) और उसके तीन पुत्रों बृह्मा विष्णु महेश की कैद में अनन्तकाल से है । इन सबका एक ही उद्देश्य है कि ये मनुष्य अपनी वास्तविक पहचान को न जान सके । इसलिये सन्तों के मोक्ष ग्यान की तर्ज पर इन्होंने भी एक लगभग झूठा मोक्ष ग्यान बना डाला । जो वास्तव में मोक्ष ( मुक्त ग्यान ) न होकर मुक्ति ग्यान है । इस मुक्ति का मतलब है । स्वर्ग आदि के प्रलोभन देकर जीव को फ़िर से हजारों साल के लिये अपने जाल में उलझा देना ।
तब..इस स्थिति में काल की त्रिलोकी सीमा से ऊपर के वासी सच्चे सन्त जीव को सतनाम दीक्षा देकर मुक्त कराने आते हैं ।..दरअसल कालपुरुष से काफ़ी झगङे के बाद हुये समझौते में आखिर यही निर्णय हुआ था ।
कि सतनाम दीक्षा वाला उस सच्चे नाम की कमाई ( जाप ) करके मुक्त हो सकेगा । उसे काल नहीं रोकेगा ।
पर काल ने यहाँ भी छल किया । और अपनी पत्नी और पुत्रों के साथ मिलकर नाम उपदेश पाने वाले जीवों के उद्धार होकर जाने वाले मार्ग में तमाम बाधायें उत्पन्न कर दीं ।
अब ये जो आकाश में बाजा वाली बात है । ये अंतर आकाश में एक अनहद ( लगातार ) ध्वनि गूँज रही है । जो साधक को निरंकार ( आकाश तत्व या आकाश ) से ऊपर उठने पर सुनाई देती है । तो बाजा वाली बात आप समझ ही गये होंगे । कुछ कुछ झींगुर की आवाज से मिलती इस लगातार होती आकाशीय ध्वनि को ही सन्तों ने बाजा कहा है । इसी ध्वनि की चोट से साधक असली सत्य जानने की ओर बङता है । इसी को कहा गया है । परिओ नीसाने घाऊ ।
..खेत जु मांडियो सूरमा अब जुझन को दाऊ ।
शब्दार्थ - खेत यानी रणक्षेत्र यानी लङाई के मैदान में अब ये वीर अपने दाँव से जूझेगा ।
असली रहस्य का अर्थ - मैंने ऊपर कहा कि कालपुरुष कभी नहीं चाहता कि कोई जीव आत्मा मुक्त होकर असली सुखधाम याने अपने वास्तविक घर सतलोक ( जहाँ की वह निवासी है ) जा सके । इसीलिये उसने संसार में तरह तरह के मायाजाल और कामवासना ( जो आदिकाल में सिर्फ़ संतान उत्पत्ति हेतु थी ) में एक विशेष आकर्षण पैदा कर दिया ।..लेकिन फ़िर भी कभी कभी जीव इन सबसे उकताकर परमात्मा को पुकारता है । और तब उस पुकार को सुनकर परमात्मा किसी सच्चे सन्त को उसके उद्धार के लिये भेजता है ।
फ़िर सन्त के द्वारा सच्चा नाम उस जीव के अंतर में प्रकट करके उसे नाम कमाई का रास्ता बताया जाता है ।
इस नाम कमाई ( जो बाद में ध्यान कहलाती है । ) के अभ्यास से वह भक्त अंतर आकाश में ऊपर उठता है ।
और जब निरंकार ( आकाश ) से कुछ ऊपर पहुँच जाता है । तब ये कालपुरुष की माया सेना उसे घेर लेती है । और विभिन्न हथकन्डों से डराती है । ( लेकिन चिंता की बात नहीं होती । सदगुरु महाराज हमेशा साथ होते हैं । भले ही मालूम नहीं पङता कि साथ हैं । ) यहाँ कदम कदम पर उस नाम साधक की परीक्षा होती है । काल भयभीत करता है । तरह तरह के लालच देता है । अप्सरायें आदि भेजता है । ( यदि साधक फ़ीमेल है । तो इस स्तर के देव आदि भेजकर कामवासना का प्रभाव डालता है । )
*** तो असली बात यही है कि ये सूरमा यानी नाम साधक उस युद्धक्षेत्र में पहुँच गया । और अब इसे खुद को साबित करना है कि अब तक की पढाई में वह कितना योग्य है ।


सूरा सो पहचानियो जु लरे दीन के हेत ।
शब्दार्थ - असली वीर वही है । जो निर्बलों कमजोर के लिये लङता है । न कि अपने लिये ।
असली अर्थ -...पूरा सन्तमत ही निस्वार्थ भावना पर आधारित है । और परमार्थ की ही शिक्षा देता है ।..तो जब कोई साधक इस ऊँचाई पर पहुँच जाता है । तो उसे अपने कष्टों और तकलीफ़ों ( जो साधना में आते हैं ) को भूलकर सब निर्बल और दुखीजनों ( जो उस समय इस बाह्य जगत में उसके सम्पर्क में आते हैं । ) की सहायता करनी होती है । ये साधना का नियम है । यहाँ एक तरह से ..मारे और रोने भी न दे..वाली स्थिति हो जाती है । यही सच्चा शिष्य होना है । यही शिष्य परीक्षा की कसौटी भी है ।
पुरजा - पुरजा कटी मरे कबहूँ न छाँङे खेत ।
शब्दार्थ - चाहे शरीर के चिथङे चिथङे हो जायँ । मगर युद्ध का मैदान न छोङे ।
असली अर्थ - ..ये लाइन बङी महत्वपूर्ण है । पंजावी लोगों में सुमरन शब्द बच्चा बच्चा जानता है । पर इसका सही अर्थ नहीं जानता । सुमरन..मतलब खुद मर जाना ।..तो अभी बात उसी युद्ध की ही है । काल कोई कसर नहीं छोङता । और साधक पर चौतरफ़ा वार हो रहे होते हैं । इसी स्थिति के लिये सुरति शब्द योग की महान साधिका रैदास जी की शिष्या मीराबाई ने कहा है..जो मैं ऐसा जानती । भगति करे दुख होय । नगर ढिढोंरा पीटती । भगति न करियो कोय । आगे मीरा जी ने और भी कहा है..सूली ऊपर सेज पिया की । किस विधि मिलना होय ।..ऐसी ही बातें तमाम और सन्तों ने भी कही है ।
इसको ठीक से समझने के लिये..मछली का उदाहरण भी बताया गया है । मछली को पानी से बाहर निकाल दो । फ़िर भी पानी के लिये तङपती है । उसको पका के खा लो । फ़िर भी पेट में जाकर पानी के लिये तङपती है । ( मछली खाकर प्यास अधिक लगती है । ऐसा लोग कहते हैं । मुझे इसका अनुभव नहीं है । )
..तो कहने का मतलब..मछली जैसे पानी से मुहब्बत की खातिर जान दे देती है । पर पानी के बिना नहीं रह सकती । उसी तरह परमात्मा के भक्त को भी..पुरजा - पुरजा कटी मरे । कबहूँ न छाँङे खेत..भले ही वो तङप तङपकर मर जाय । पर उस प्यारे प्रभु का ख्याल तक न छोङें । इसी को साधना में सधना कहा गया है । और इसीलिये साधना करने वाले को साधक ( किसी भी स्थिति में विचलित न होकर सधा रहे । ऐसा साधने वाला । ) कहा जाता है ।
और अन्त में - आपका बहुत बहुत धन्यवाद ! दर्शन कौर जी ! जो आपकी इन चार लाइनों से मुझ जैसे मूढमता को कुछ सीखने को मिला । मैं थोङा अग्यानी टायप हूँ । ढंग से नही लिख पाता । अतः जहाँ समझ न आया हो । दोबारा पूछ लें । सतनाम वाहेगुरु जो बोले सो निहाल । सत श्री अकाल ।

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