21 जुलाई 2016

ओशो स्त्री भी और पुरुष भी

मेरे इस लिखित कथन पर -
मैं ओशो या कृष्णमूर्ति के तरह निश्चित स्तरीय ( एक ही तल पर ) बात न कहकर सार्वभौमिक और मिश्रित अन्दाज में विषय रखता हूँ । क्योंकि नेट एक ऐसा स्कूल है । जिसमें पहली कक्षा से लेकर डाक्टरेट तक के लोग एक ही कक्ष में बैठे हैं ।
अतः बाद में प्रतिक्रिया में सभी चीजें स्पष्ट हो जाती हैं । अब वह बात अलग है । उस विषय से किसमें क्या और किस स्तरीय क्रिया हुयी ।
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ओशो समर्थक अंतरप्रकाश जी की प्रतिक्रिया ( संवाद और भी था । पर मूल यही है )
Rajeev Kulshreshtha जी, सन्ध्या नमन,
क्या आप बतायेंगे कि अष्टावक्र गीता जनमानस में क्यों उपदेशित न हो सकी । और भगवत गीता जनमानस की उपयोगिता बन गई ?
बाबा क्या आप ये भी बताने की अनुकम्पा करेंगे कि कृष्णमूर्ति क्यों आप्रासंगिक हो गये । और ओशो जनमानस में फैलते जा रहे है ?
दर्जा एक के विद्यार्थियों को आप सीधे डाक्ट्रेट दे या दिला सकते है ?
बाबा आपने जो पोस्ट स्टैट्स पर रखी है । क्या वह सार्वभौमिकता से सम्बध रखती है ?
- बाबा आप कृपया मेरे चारो प्रश्नों के समाधान रखने की कृपा करें ।
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क्या आप बतायेंगे कि अष्टावक्र गीता जनमानस में क्यों उपदेशित न हो सकी । और भगवत गीता जनमानस की उपयोगिता बन गई ?
उत्तर - किसी भी मुख्यधारा से जुङे महत्वपूर्ण विषय को लेकर भिन्न भिन्न मानसिक स्तरों पर जो ग्राह्यता, प्रियता, अप्रियता बनती है । उसमें देश, समाज, काल, जाति, संस्कार, शिक्षा, वातावरण आदि जैसे कारकों की विशेष भूमिका रहती है ।
अष्टावक्र गीत, गीत नहीं महागीत है । क्योंकि यह सर्वदेशीय, सर्वात्मीय, सर्वव्यापक मगर एक आत्ममूल पर ही केन्द्रित है । इसके कथन अहं आधारित मनोविकारों को मिथ्या और भ्रामक बताते हुये आत्मा या निज स्वरूप के प्रति ही जाग्रति का आह्वान देते हैं । अष्टावक्र गीत का मूल स्वर यही है और यह अद्वैत और आत्ममूल पर ही है ।
जबकि द्वैत ( पर आधारित ) सामाजिकता और धर्म, अधर्म आदि द्वि पक्षों को लेकर भगवद गीत मनोविकारों का सिर्फ़ उपचार सा ही करता है । उसमें कर्ता भाव का त्याग कर अकर्ता हो जाने का प्रमुख उपदेश है ।
भगवत गीता का भगवान कहता है - तुम मेरी शरण में आ जाओ । मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा । जबकि अष्टावक्र गीता कहती है - कैसी शरण और कौन शरणदाता और कैसे पाप ? ऐसा तो कुछ है ही नहीं । 
अतः जैसा कि मैंने ऊपर कहा - दोनों के स्तर में जमीन आसमान का अन्तर है ।
गीता कहती है - इस गूढ़ ज्ञान को जानने के लिये किसी तत्वदर्शी को तलाश करो । ऐसी जगह, ऐसे टेङे सीधे होकर आसन लगाओ, ऐसे नाक का कोना देखो आदि..करो । तब तुम उसको जानोगे ।
अष्टावक्र गीता कहती है - सिर्फ़ बात को तल पर समझ लो । ये सब ध्यान आदि की आवश्यकता ही नहीं । क्योंकि खुद तुम्ही तुम हो ।
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दोनों गीताओं पर आधारित उपरोक्त तथ्य बेहद उच्च स्तरीय हैं । जो सिर्फ़ प्रबुद्ध वर्ग का मानस ग्रहण कर पाता है । अतः आपके प्रश्न सार के अनुसार यह उत्तर उचित नही है । उपरोक्त सिर्फ़ विषय को स्पष्ट करने हेतु अधिक है । क्योंकि आपका प्रश्न सार सामान्य जनमानस और सामाजिकता पर केन्द्रित है । अतः उसके कारण अन्य हैं ।
महर्षि व्यास द्वारा रचित महाभारत के लगभग वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय अंश भगवद गीता के वक्ता स्वयं श्रीकृष्ण हैं । जिनकी भारतीय हिन्दू अहिन्दू समाज में एक सर्वशक्तिमान छवि है । दरअसल में जिसके पीछे सिर्फ़ लालची भावनाओं की चाशनी अधिक लिपटी हुयी है ।
जैसे नरसी को करोङों का भात, अति निर्धन सुदामा को लोकपति बना देना, तमाम असुरों को खेल खेल में मार देना ( सुपरमेन ) सभी कुंवारियों विवाहित स्त्रियों का प्रेमी होना, तमाम चमत्कारिक और भक्तों को धन समृद्धि युक्त करने आदि आदि के हजारों वृतांत कृष्ण को ‘रोग अनेक दवा एक’ जैसा महत्वपूर्ण पद खुद दिला देते हैं । और इन सबसे भी बढ़कर कृष्ण की विष्णु अवतार, भगवान और त्रिलोकपति की छवि होना । यानी स्वर्ग नर्क, जन्म मरण, मोक्ष आदि सब उन्हीं के हाथों में । ऐसे व्यक्ति की चापलूसी कौन नहीं करेगा, सिर्फ़ ज्ञानी को छोङकर ।
अब आठ जगह से टेङे विकृत और लगभग कुरूप अष्टावक्र को, जिन्हें आज भी बहुत सा हिन्दू तक नहीं जानता । और बहुत हद जिनका परिचय एक ऋषि पिता द्वारा शापित पुत्र और जनक गुरु और एक स्वयं की गीता के उपदेशक जितना ही है । श्रीकृष्ण की सुन्दर सलौनी, मुरली बजईया, माखन चोर, नटखट बालक, सुन्दर बलिष्ठ किशोर, कुशल राजनेता, अजेय योद्धा, कुशल कूटनीतिज्ञ आदि आदि इतनी छवियां हैं कि वे आम जनमानस के सर्वप्रिय और सर्वविघ्नहारा हो ही जाते हैं । ये एक बेहद सुन्दर सुखद सपने जैसा है कि नहीं ?
जबकि अष्टावक्र कहते हैं - काहे का राज, काहे का राजा, जनक तू पागल हुआ है क्या ? सब कुछ महज सपना है । महज भ्रांति ।
देखें -
तृण से लेकर ब्रह्मा तक सब कुछ मैं ही हूँ । ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला विकल्प ( कामना ) रहित, पवित्र, शांत और प्राप्त अप्राप्त से आसक्ति रहित हो जाता है ।7।
अनेक आश्चर्यों से युक्त यह विश्व अस्तित्वहीन है । ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, इच्छा रहित और शुद्ध अस्तित्व हो जाता है । वह अपार शांति को प्राप्त करता है ।8।
अध्याय 11
ये मैंने सिर्फ़ दो उदाहरण भर दिये हैं । अष्टावक्र के सभी उपदेश ही यही कहते हैं कि - कहाँ पागल हुये हो । अरे सब भ्रम ही है ।
विशेष - अब यदि आप भगवद गीता और अष्टावक्र गीता की तुलना न करके उनके वक्ताओं की तुलना से तुलना करेंगे । तो बात स्पष्ट हो जायेगी ।
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अब एक और भी मुख्य कारण - सृष्टि की संरचना जिस तरीके पर आधारित है । उसमें आत्मज्ञान कारणवश सिर्फ़ मुठ्ठी भर लोगों को ही सिद्ध होता है । अतः ये लोकप्रिय होने जैसा विषय ही नहीं है ।  
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बाबा क्या आप ये भी बताने की अनुकम्पा करेंगे कि कृष्णमूर्ति क्यों आप्रासंगिक हो गये । और ओशो जनमानस में फैलते जा रहे है ?
उत्तर - ओशो अपने सरल स्वभाव के कारण भले ही कृष्णमूर्ति के विषय में कुछ भी कहें । मैं कृष्णमूर्ति पर बात करना व्यर्थ और सर्वथा महत्वहीन मानता हूँ । तथापि नास्तिक और भूत प्रेतों को पूजने वाले जैसे भांति भांति के जीव वर्ग यहाँ मौजूद हैं । तो फ़िर कृष्णमूर्ति उनके देखे, फ़िर भी ठीक हैं ।
इन दोनों को अध्ययन स्तर पर ही जानने वाला यदि निरपेक्ष तुलना करेगा । तो ओशो की लोकप्रियता और कृष्णमूर्ति की तुलनात्मक ओशो उपेक्षा सहज ज्ञात हो जाती है ।
ओशो के स्वर में सिर्फ़ विरोध नहीं है । अनुरोध भी है । उनमें सिर्फ़ रूखापन नहीं है । श्रंगार भी है । ओशो कङवे और मीठे दोनों हैं । ओशो ( व्यक्ति भाव अनुसार )  दुश्मन और मित्र दोनों हैं । ओशो एकांगी और सर्वांगी दोनों हैं । ओशो स्त्री भी हैं और पुरुष भी । ओशो शैतान भी है और भगवान भी । ओशो निरे पागल भी है और गहरे विवेकी भी । ओशो सरस और नीरस भी हैं । कुल मिलाकर यदि ओशो बेहद असामाजिक हैं तो गहरे सामाजिक भी । ओशो एक और बहुत दोनों हैं आदि ।
लेकिन कृष्णमूर्ति सिर्फ़ रूखे हैं । चिङचिङे हैं । जैसे पलायनवादी हैं । अजीब एकांगी हैं । नीरस हैं । वह कीचङ में निर्लेप कमल सिद्धांत को स्वीकार ही नहीं करते । वह कहते हैं - या तो कीचङ ही  हटा दो । या फ़िर कमल का ही स्थान बदलो । दोनों साथ नहीं होने चाहिये । और ऐसा न कभी हुआ । न आगे हो सकता है । कमल को कीचङ में ही रहना होगा । अब वह लेपित रहे या निर्लेपित, यही उसका कौशल है ।
यह विषय कुछ अधिक विस्तार की मांग करता है । पर जिन्होंने अध्ययन किया होगा । वे इतने से समझ सकेंगे ।
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दर्जा एक के विद्यार्थियों को आप सीधे डाक्ट्रेट दे या दिला सकते है ?
उत्तर - आपने कथन भाव को समझने की पूर्ण कोशिश नहीं की । फ़िर से गौर करिये -  क्योंकि नेट एक ऐसा स्कूल है । जिसमें पहली कक्षा से लेकर डाक्टरेट तक के लोग ‘एक ही कक्ष’ में बैठे हैं । अतः बाद में प्रतिक्रिया में सभी चीजें स्पष्ट हो जाती हैं । अब वह बात अलग है । उस विषय से किसमें क्या और किस स्तरीय क्रिया हुयी ।
दर्जा एक छोङिये । दस दर्जा या फ़िर अधिक को भी दूसरे द्वारा नहीं दिलाया जा सकता । लेकिन किसी भी प्रस्तुति को लेकर उसकी साधारण जिज्ञासा, गहन जिज्ञासा, रुचि, चिढ़, तिरस्कार आदि आदि क्या प्रतिक्रिया रही । यह महत्वपूर्ण है । क्योंकि प्रतिक्रिया कुछ भी क्यों न हो । वह विषय को आगे ही बढ़ायेगी और स्पष्ट भी करेगी । अतः कक्षायें और स्तर बदलते ही रहेंगे ।
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बाबा आपने जो पोस्ट स्टेटस पर रखी है । क्या वह सार्वभौमिकता से सम्बध रखती है ?
उत्तर - सृष्टि का एक अति तुच्छ कण भी सर्वदा सार्वभौमिक ही है ।
तिनका कबहुं न निन्दिये, पांव तले जो होय ।
कबहु उङ आंखन परे, पीर घनेरी होय ।
अब आप अपने अन्तिम दो प्रश्नों पर विचारें । तो उत्तर स्वयं ही स्पष्ट हो जायेगा । फ़ेसबुक की इसी पोस्ट पर बहुस्तरीय प्रतिक्रियायें देखें ( दर्जा एक के विद्यार्थियों को आप सीधे डाक्ट्रेट )
एक ही पोस्ट पर कितने कृम बने ?
और सार्वभौमिकता की बात यह है कि जैसा कि मैंने ऊपर कहा - अतः बाद में प्रतिक्रिया में सभी चीजें स्पष्ट हो जाती हैं । अब वह बात अलग है । उस विषय से किसमें क्या और किस स्तरीय क्रिया हुयी ।
खास सिर्फ़ एक अंतरप्रकाश की हलचल के आधार पर इसने कितना विस्तार ले लिया ? नेट पर इसका बीजारोपङ हो गया । अतः आगे कितना सार्वभौम हो सकता है ? यह कहा नहीं जा  सकता ।

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